आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
वस्तुतः प्रार्थना का प्रयोजन अपने आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि वह इसका पात्र बने कि आवश्यक विभूतियाँ उसे उसकी योग्यता के अनुरूप सहज ही मिल सकें। यह अपने मन की खुशामद है। मन को मनाना है। आपे को बुहारना है। आत्म-जागरण है। आत्मा से प्रार्थना द्वारा कहा जाता है, हे शक्ति पुंज तू जागृत क्यों नही होता अपने गुण, कर्म स्वभाव को प्रगति के पथ पर अग्रसर क्यों नहीं करता। तू सँभल जाय तो सारी दुनियां सँभल जाय। तू निर्मल बने तो सारे संसार की निर्मलता खिंचती हुई अपने पास चली आये। अपनी सामर्थ्य का विकास करने में तत्पर और उपलब्धियों का सदुपयोग करने में संलग्न हो जाय तो दीन-हीन अभावग्रस्तों की पंक्ति में क्यों बैठना पड़े। फिर समर्थ और दानी देवताओं से अपना स्थान नीचा क्यों रहे।
प्रार्थना के माध्यम से हम विश्वव्यापी महानता के साथ अपना घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित करते हैं। आदर्शों को भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं और उसके साथ जुड़ जाने की भाव विह्वलता को सजग करते हैं। तमसाच्छन्न मनोभूमि में अज्ञान और आलस्य ने जड़ जमा ली है। आत्म-विस्मृति ने अपना स्वरूप एवं स्तर ही बना लिया है। जीवन में संव्याप्त इस कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण करने के लिए अपने प्रसुप्त अन्त:करण से प्रार्थना की जाय कि यदि तन्द्रा और मूर्छा छोड़कर तू सजग हो जाय और मनुष्य को जो सोचना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए सो करने लगे तो अपना बेड़ा ही पार हो जाय। अन्त:ज्योति की एक किरण उग पड़े तो पग-पग पर ठोकर लगने के निमित्त बने हुए इस अन्धकार से छुटकारा ही मिल जाय जिसने शोक-संताप की विडम्बनाओं को सब ओर से आवृत्त कर रखा है।
परमेश्वर यों साक्षी, दृष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है। पर उसके जिस अंश की हम उपासना प्रार्थना करते हैं वह सर्वात्मा एवम् पवित्रात्मा ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने और पेट तथा प्रजनन के लिये ही सीमाबद्ध रखने वाली वासना तृष्णा भरी मूढ़ता को ही माया कहते हैं। इस भव बन्धन से मोह, ममता से छुड़ाकर आत्म-विस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म-स्तर से परमात्मा से यही प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करे और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करे जिससे सर्वत्र दीख पड़ने वाला अन्धकार-दिव्य प्रकाश के रूप में परिणत हो सके।
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