आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
|
111 पाठक हैं |
आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
लघुता को विशालता में-तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का सङ्कल्प प्रार्थना कहलाता है। आत्मा को आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विशाल व्यापक बनकर परमात्मा के रूप में प्रकट होती है तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दीख पड़ा, नर-पशु के स्तर से ऊँचा उठकर जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो उसे प्रार्थना की गहराई का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है। आत्म-समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गया है। किसी के होकर ही हम किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अपने को समर्पण करना ही ईश्वर के हमारे प्रति समर्पित होने की विवशता का एक मात्र तरीका है। 'शरणागति' भक्ति का प्रधान लक्षण माना गया है। गीता में भगवान ने आश्वासन दिया है कि जो सच्चे मन से मेरी शरण में आता है उनके योग क्षेम की-सुख-शान्ति और प्रगति की जिम्मेदारी मैं उठाता हूँ। सच्चे मन और झूठे मन की शरणागति का अन्तर स्पष्ट है। प्रार्थना के समय तन, मन, धन सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित करने की लच्छेदार भाषा का उपयोग करना और जब वैसा करने का अवसर आवे तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाना झूठे मन की प्रार्थना है। आज इसी का फैशन है। जिस तरह व्यभिचारी किसी भोली लड़की को फँसाने के लिये लम्बे-चौड़े सब्ज-बाग दिखाता है और यह जानते हुए भी कि यह आश्वासन मुझे पूरे करने नहीं हैं, बड़े-बड़े विश्वास दिलाता है, कसमें खाता है। उसी प्रकार झूठे मन से की हुई प्रार्थना ईश्वर को ठगने बहकाने के लिए होती है। समर्पण शरणागति जैसे दिव्य स्तर के अर्थ समझता होगा वह इतना भी जानता होगा कि उसका तात्पर्य अपनी लिप्साओं को भगवान की इच्छाओं में परिणित कर देनेगति-विधियों को तृष्णा, वासना के चंगुल से छुड़ाकर ईश्वर की इच्छानुसार उत्कृष्ट विचारणा तथा आदर्शवादी क्रिया पद्धति से अपने वर्तमान ढाँचे को बदलना ही होता है। जो इसके लिये तैयार होकर समर्पण शरणागति की बात करे उसी को सच्चे मन से प्रार्थना करने वाला कहा जा सकता है।
एक शराबी ने नशे में धुत्त होकर किसी के हाथों अपना मकान सस्ते दाम में बेच डाला होश आया तो अदालत में अर्जी दी कि नशे में होश-हवाश ठीक न होने के कारण वह बिक्री की थी। अब होश में आने पर उस इकरार नामे से इनकार करता हूँ। पूजा, प्रार्थना के समय लोग न जाने क्या-क्या स्तुति, प्रार्थना करते हैं। मैं तेरी शरण में आया हूँ, तेरा ही हूँ, तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ, मेरा तो तू ही है। तेरे सिवा मेरा कौन है।" आदि आदि। वे इन शब्दों का अर्थ भी नहीं समझते और न फलितार्थ। जो शब्द कहे जा रहे हैं यदि वे समझ-बूझकर-होश-हवाश में कहे गये होते तो जरूर उस स्थिति के अनुरूप जीवन क्रम ढालने और विचारों तथा कार्यों में उनका समावेश करने का प्रयत्न किया गया होता। पूजा स्थल से निकलते ही-जब प्रार्थना कथन को कार्यान्वित होने की आवश्यकता अनुभव होती है तब सब कुछ बहुत कठिन प्रतीत होता है। होश में आये हुये शराबी की तरह तब उस कथनी को करनी में परिणित कर सकने की हिम्मत न होने से यही कहना पड़ता है उस इकरारनामे से इनकार करता हूँ जो पूजा के समय सब कुछ भगवान को समर्पण करने वाली शब्दावली के साथ कहा गया था।
|