आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
ईश्वर दयालु और दाता तो है, पर देते समय वह भी विवेक से काम लेता है और पात्रता परखते हुए ही देने वाली मुट्ठी खोलता है। जहाँ तक सहज अनुदान का प्रश्न था वहाँ उसने सबको बहुमूल्य शरीर एक से एक उपयोगी अंग बुद्धि, सुन्दर दुनिया तथा सुविधा जनक परिस्थितियाँ प्रदान की हैं। एकाकी तो हम एक मक्खी भी नहीं बना सकते और उसकी प्रदत्त सामग्री न हो तो अन्न का एक दाना भी उगा सकना सम्भव नहीं। आदमी के पुरुषार्थ और बुद्धि का बहुत मूल्य है पर वह तभी कुछ कर सकने और पा सकने में सफल हो सकता है जब आवश्यक साधन और सुविधायें उपलब्ध हों। कहना न होगा कि वस्तुयें तथा सुविधायें इस संसार में भगवान ने ही उपलब्ध की हैं। मनुष्य तो उनमें थोड़ा हेर फेर कर लेता या उपयोग उपभोग में अपनी चतुरता का ताल-मेल बिठा लेता है। उसके पुरुषार्थ और बुद्धि वैभव का दायरा इतना ही सीमित है। मूल उत्पादन और अनुदान तो सर्वत्र परमात्मा का ही बिखरा पड़ा है।
यह समस्त उपलब्धियाँ भगवान ने आरम्भ से ही मनुष्य को दे दी हैं और उसे इस लायक बना दिया है कि दैनिक जीवन की अपनी आवश्यकताओं को अपने कौशल से स्वयं पूरा कर लिया करे। इसके अतिरिक्त परिस्थितियों को अनुकूल बनाने, परस्पर सद्भाव, सहयोग बनाये रहने तथा प्रगति के लिए साधन जुटाने के लिये इतना बुद्धि, कौशल दिया है कि आये दिन सामने आती रहने वाली उलझनों को सुलझाया जा सके। धैर्य, साहस, पुरुषार्थ, पराक्रम, विवेक, स्नेह, आदि विशेषताओं से सम्पन्न ऐसा मन बनाया है जो प्रतिकूलता में अनुकूलता उत्पन्न कर सके और अपनी हँसी-खुशी को हर स्थिति में अक्षुण्य रख सके। हर दिशा में प्रगति की इतनी सम्भावनायें प्रस्तुत करके रखी गई हैं कि यदि बुद्धिमानी से काम लिया जाय तो अभाव और असुविधा सहने का कोई अवसर ही न आये, आ भी जाय तो इतना मनोबल दिया गया है जिससे विपत्तियों के सहने तथा उन्हें बदलने की चेष्टा करते हुए जीवन क्रम की सरसता को अक्षुण्ण बनाये रहा जा सके।
यह सब ईश्वर प्रदत्त अनुदान इतने बड़े हैं और इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है कि उसे महान दयालु और महान दानी कहने में कोई सङ्कोच नहीं होना चाहिए। जीवनयापन की आवश्यक सुविधा, साधन देकर भगवान ने सब प्राणियों को भेजा है। फिर मनुष्य को तो वाणी, समझ तथा कुशलता का अनुदान अतिरिक्त रूप से भी दिया है जिसके आधार पर अन्य जीवों की तुलना में असंख्य गुना सुविधा सम्पन्न जीवन जी सकता है। इतने पर भी यदि कोई दुःखी या अभावग्रस्त रहता है, शोक-सन्ताप सहता है तो यही कहा जायेगा कि उसने उपलब्ध साधनों तथा परिस्थितियों का ठीक से उपयोग करना एवं लाभ उठाना नहीं सीखा। इस नासमझी का दण्ड यदि उसे मिलता और अपने को विपन्न स्थिति में पड़ा पाता है तो उसमें दोष उसी का है। इसलिये किसी अन्य को यहाँ तक कि भगवान को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। थाली सामने परसी रखी हो पर यदि कोई उसे ठुकरा दे और खाना ही न चाहे तो उस आमन्त्रित कठिनाई से कोई क्यों कर किसी को बचा सकता है?
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