आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
नब्बे प्रतिशत कठिनाइयाँ ऐसी हैं जो न भाग्य से उत्पन्न हुई हैं और न किसी दूसरे ने पैदा की हैं वरन् उनका कारण मात्र नासमझी या कर्तृत्व की दोष पूर्ण पद्धति है। इन्हें सुधार लिया जाय तो मनुष्य हँसी-खुशी का-शान्त और सन्तुष्ट जीवन जी सकता है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकतायें बहुत स्वल्प हैं। उसका आहार अन्य पशुओं से कम है। भोजन, वस्त्र, मकान आदि के साधन जुटा लेना इस महँगाई के जमाने में भी बहुत कठिन नहीं है। शिष्टता, सादगी, व्यवस्था और सज्जनता से रहना आता हो तो मिल-जुलकर शान्ति और स्नेह पूर्वक रहने का वातावरण बना रह सकता है। आहार-विहार का ज्ञान हो तो रोगी बनने की भी नौबत न आवे। परिस्थितियों के अनुरूप चिन्तन को ढालने मोड़ने का मानसिक लोच बना रहे तो आवेश उद्वेग और शोक-सन्ताप भी सहन न करने पड़ें। संग्रह और स्वामित्व का अहङ्कार अमीरी और आतंक की अभिलाषा न हो तो न असन्तोष की आग में जलना पड़े और न पाप, अपराध करने की आवश्यकता पड़े। वासनाओं और तृष्णाओं को काबू में रखा जा सके तो इस सुन्दर से भगवान के संसार उद्यान में हँसते-खेलते दिन बिताये जा सकते हैं। मनुष्य का जीवन अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक सुविधा सम्पन्न है उसे पाकर आदमी को भलमनसाहत आती हो तो सन्तोष और शान्ति के साथ स्वयं जी सकता है और दूसरों को जीवित रहने दे सकता है।
पर हम देखते हैं कि मनुष्य को जितनी सुविधायें मिली हैं उतना ही ज्यादा वह दुःखी तथा उलझा हुआ है। इसका कारण वस्तुओं की कमी नहीं, वरन् उसके सदुपयोग की क्षमता का अभाव है। इसका कारण परिस्थितियों की क्षमता का अभाव है। इसका कारण परिस्थितियों की प्रतिकूलता नहीं वरन् उसके अनुकूल ढलने या उन्हें अपने अनुकूल ढालने वाले कलात्मक दृष्टिकोण की कमी है। यदि अपनी इन त्रुटियों को दूर कर लिया जाय तो न अभाव ग्रस्तता अनुभव होगी और न उसकी पूर्ति के लिए किसी से प्रार्थना करनी पड़ेगी। न अपने ऊपर सङ्कट की घटायें घिरी दीखेंगी और न किसी का सहारा तकना पड़ेगा।
भगवान से माँगने योग्य वस्तुयें श्रद्धा, हिम्मत, श्रम-निष्ठा, सच्चरित्रता, करुणा, ममता, पवित्रता और विवेकशीलता जैसी वे सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियाँ हैं जो विपन्नता को सम्पन्नता में बदल देती हैं और अभाव रहते हुए जिनके कारण विपुल सम्पन्नता का सुख अनुभव होता रहता है। प्रगति और सफलता का सारा आधार सद्गुणों पर अवलम्बित है। उनके बिना अकस्मात किसी प्रकार कोई लाभ मिल भी जाय तो उसे सँभालना और स्थिर रखना सम्भव न होगा। सदुपयोग केवल उस वस्तु का किया जा सकता है जो उचित मूल्य देकर उपर्जित की गई हैं। अनायास बिना परिश्रम के मिली हुई सम्पत्ति का अपव्यय ही होता है और उससे अनेक व्यसन और उद्वेग पैदा होते हैं जिनके कारण वह उपलब्धि सुखदायक न होकर अनेक विपत्तियाँ और विकृतियाँ उत्पन्न करने का कारण बन जाती है। भगवान जिस पर प्रसन्न होते हैं उसे सद्गुणों का उपहार देते हैं क्योंकि वे अपने आप में इतने महान हैं कि यदि साधना सम्पन्नता न भी हो तो भी केवल उन सद्गुणों की सम्पदा के आधार पर मनुष्य सुखी, समुन्नत और सम्मानित जीवन जी सकता है। यही दिव्य सम्पदायें भगवान से माँगनी चाहिए। यही हैं वे विभूतियाँ जिन्हें वे अपने भक्तों को दिया करते हैं।
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