आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
भौतिक सुख, सम्पदाओं का जितना अपना हक था उतना जन्मते ही मिल चुका अब अपने पुरुषार्थ और प्रयत्न की बात रह जाती है जितनी योग्यता संग्रह करेंगे, जितनी कुशलता का परिचय देंगे और जितना मनोयोग पूर्वक श्रम करने की आदत डालेंगे उतने ही सुख-साधन मिलते जायेंगे। इसमें परमात्मा से माँगने की क्या बात है जो हम अपने पुरुषार्थ से प्राप्त कर सकते हैं उसके लिए हाथ पसारने की क्या जरूरत? शरीर रोगी है तो आहार-विहार का संयम, आरोग्य के नियम पालन में कड़ाई और उपयुक्त चिकित्सा परिचर्या की व्यवस्था करनी चाहिए। पैसों की तंगी पड़ती है तो उपार्जन के लिए अधिक पुरुषार्थ, योग्यता की अभिवृद्धि तथा खर्च में कमी करने वाली सादगी अपनानी चाहिए और उस संकट को पार करना चाहिये। यदि आरोग्य, धन जैसी वस्तुओं को माँगें, परीक्षा में उत्तीर्ण होने की अथवा मुकदमा जीतने की योजना करें और माँगने मात्र से भगवान उन कामनाओं को पूरी करदें तो फिर योग्यता एवं पात्रता बढ़ाने की क्या आवश्यकता रह जायेगी। फिर वे घाटे में रहेंगे जो पराक्रम करने में जुटे हुए हैं। जब सरलता पूर्वक प्रार्थना मात्र से अभीष्ट सफलतायें मिल सकती हैं और मनोकामनायें पूर्ण हो सकती हैं तो फिर उनके लिए इतना कष्ट साध्य पुरुषार्थ कौन करेगा? फिर कर्मफल का सिद्धांत ही गलत हो जायेगा और लोग कर्मनिष्ठ बनने की अपेक्षा प्रार्थना परायण बनना पसन्द करेंगे। क्योंकि सरलता उसी में है। इसी प्रवृत्ति ने अपने देश में भिक्षुओं की संख्या ५६ लाख बढ़ा दी है। यह परावलम्बन देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को दुर्बल कर रहा है। प्रार्थना के साथ भौतिक सुख-सुविधाओं की याचना जोड़ देने से अध्यात्म तत्व की महत्ता गिर गई। उस क्षेत्र में अब आत्म-बल सम्पन्न महामानव नहीं दीखते वरन् दीनता भरी गिड़गिड़ाने की वाणियाँ मात्र सुनाई पड़ती हैं।
क्या माँगने मात्र से अभीष्ट प्रयोजन पूरे हो सकते हैं? क्या सुख-सुविधाओं का उपहार याचना मात्र से मिल सकता है ? उत्तर नहीं में ही मिलेगा। इंजील ने ठीक ही कहा है-'जो तुम माँगते हो सो पाते नहीं-क्योंकि गलत माँगते हो।' गलत जगह पर गलत चीज मांगने से उसका मिलना कैसे सम्भव हो सकता है। भौतिक सफलतायें हमें अपनी भुजाओं और कलाइयों से माँगनी चाहिए। अपनी अकल को तेज करना चाहिए और सूझ-बूझ से काम लेना चाहिए। अवरोध उत्पन्न करने वाली त्रुटियों को सुधारना चाहिए। सफलता का द्वार खुल जायेगा। नास्तिक लोग जो कभी पूजा, प्रार्थना नहीं करते, भौतिक उन्नति के पर्याप्त साधन जुटा लेते हैं इसके विपरीत जो पूजा प्रार्थना में ही लगे रहते हैं, वे अभाव, दारिद्रय की, निराशा और असफलता की परिस्थितियों से घिरे रहते हैं। इसका एक मात्र कारण यही है कि जो चीज जहाँ से मांगी जानी चाहिए थी वहाँ नहीं माँगी गई। पराक्रम से जो माँगा जाना चाहिए था वह भगवान से माँगा गया। जो भगवान से मांगा जा सकता था उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। इस भ्रमग्रस्त दशा में मनोरथ पूरे हों भी कैसे।
भगवान स्वयं अपनी विधि-व्यवस्था में बँधे हुए हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने आपके साथ तक कोई रिआयत नहीं की. अपने सगे सम्बन्धियों तक को छूट नहीं दी। कर्म-फल की व्यवस्था को ही सर्वत्र प्रधान रखा। ऐसा न होता तो कोई पुरुषार्थ करने के लिए तैयार ही क्यों होता और कुकर्मों से बचने के लिए किसी को आवश्यकता ही क्या पड़ती। प्रार्थना मात्र से सारी सुविधायें मिल जाती तो फिर कठोर, कर्मठता के लिए कटिबद्ध होने की इच्छा ही क्यों होगी।
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