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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

मनुष्य महान् है और उससे भी महान् उसका भगवान्


सच कहा जाय तो इस संसार में दो वस्तु बड़ी अद्भुत और महत्व-पूर्ण हैं। एक हमारा परमेश्वर और एक हम स्वयं। इन दो से बढ़कर और कुछ आश्चर्यजनक और सामर्थ्य सम्पन्न तत्व इस दुनिया में हमारे लिये हो ही नहीं सकते। यदि अपनी महिमा और क्षमता को समझ लिया जाय और उसका बुद्धिमत्ता एवं व्यवस्था के साथ उपयोग किया जाय तो उसका परिणाम इतना बड़ा हो सकता है कि संसार के साथ ही हम स्वयं उसे देखकर दंग रह जायें। मनुष्य देखने में जितना तुच्छ और हेय लगता है वस्तुतः वैसा है नहीं। उसकी सम्भावनाएँ अनन्त हैं। गड़बड़ इतनी भर पड़ जाती है कि वह अपने स्वरूप को समझ नहीं पाता और जितना कुछ समझा है उसका सदुपयोग करने के लिये जो प्रचलित ढर्रा बदलना चाहिए उसके लिये मनोबल और भावनात्मक साहस एकत्रित नहीं कर पाता। यदि इस छोटी सी त्रुटि को सँभाल सुधार लिया जाय तो उसके अद्भुत विकास की सारी सम्भावनायें खुल जाती हैं। जिस भी दिशा में उसे बढ़ना हो-उस पथ के समस्त अवरोध स्वयमेव हट जाते हैं।

देवताओं की चर्चा कही सुनी बहुत जाती है पर किसी ने उन्हें देखा नहीं है। यदि देव दर्शन करने हों तो अपने परिष्कृत स्वरूप में अपने आप का दर्शन करना चाहिये। इस छोटे से कलेवर में समस्त देव शक्तियाँ एक ही स्थान पर केन्द्रीभूत मिल सकती हैं। स्थूल और कारण शरीरों में भूः भुवः स्वः पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोक सन्निहित हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र की तीनों शक्तियाँ इसी में भरी पड़ी हैं। दसों इन्द्रियों में दस दिगपाल बसते हैं। मनुष्य जीवन एक समुद्र है जिसके आस पास शेष सर्प, सुमेरु पर्वत, देव, असुर और कच्छप भगवान चिरकाल से विराजमान हैं और यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई आत्मबल का धनी उनका सदुपयोग करे और इस समुद्र में से रत्न निकाले। समुद्र मंथन की पौराणिक कथा पुरानी हो गई। इस कथानक की पुनरावृत्ति हममें से कोई भी कर सकता है यदि जीवन संघर्ष और जीवन के सदुपयोग की विधि व्यवस्था और पद्धति समझ में आ जाय। समुद्र मंथन से १४ रत्न निकले थे हमारे लिये सिद्धियाँ और विभूतियाँ १४०० उपहार लेकर सामने प्रस्तुत हो सकती है। सचमुच हम स्वयं एक आश्चर्य हैं काश, हमने अपने को समझ पाया होता और उसका श्रेष्ठतम उपयोग क्या हो सकता है इसका विनियोग समझ पाया होता तो इन परिस्थितियों में कदापि न पड़े होते जिनमें आज पड़े हुए हैं।

अपने आपे से भी बड़ा आश्चर्य है अपना भगवान। उसके एक विनोद कल्लोल भर का प्रयोजन पूरा करने के लिये यह इतना बडा विश्व बनकर खड़ा हो गया है जिसकी विशालता की कल्पना तक कर सकना कठिन है। वह अकेला था, उसकी इच्छा अपना विस्तार देखने की-अपने आप में रमण करने की हुई सो इस इच्छा मात्र ने इतने विशाल विश्व का सृजन खड़ा कर दिया। यह तो उसकी इच्छा का चमत्कार हुआ। उसकी सामर्थ्य और क्रिया का परिचय तो प्राप्त करना अभी शेष ही रह गया। मनुष्य मुद्दतों से प्रकृति के रहस्य जानने और उसकी ईथर, विद्युत, आणविक आदि शक्तियों के उपयोग का मर्म समझने के लिये चिरकाल से प्रयत्न कर रहा है। इस पुरुषार्थ से उसे कुछ मिला भी है। उसका परिणाम इतना ही है कि छोटा बच्चा इस गुब्बारे को पाकर उछल-कूद ही सके। पर प्रकृति के जितने रहस्य अभी जानने को शेष हैं उसकी तुलना में प्राप्त उपलब्धियाँ उतनी ही कम हैं जितनी कि पर्वत की तुलना में धूलि का एक कण। भगवान की अगणित कृतियों से अति तुच्छ सी कृति अपनी धरती का वैभव इतना विशाल है कि मनुष्य की तृष्णा इच्छा और कल्पना से असंख्य गुना वैभव उसमें भरा पड़ा है। फिर समस्त ब्रह्मांडों से मिलकर बने हुये इस महान सृजन से भरी विभूतियों की बात सोची ही कैसे जाय?

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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