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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


इतने विशाल वैभव से भरे हुए विश्व को एक विनोद उल्लास की तरह बनाने और चलाने वाला परमेश्वर यदि समग्र रूप से मनुष्य की कल्पना में आ सका होता तो कितना सुखद होता। पर कहाँ मनुष्य कहाँ उसकी कल्पना इनकी तुच्छता और भगवान की विशालता की आपस में कोई संगति नहीं बैठती। उसका समग्र स्वरूप तो सत्चित आनन्द से-सत्यं शिवं सुन्दरम् से इतना ओत-प्रोत है कि उसकी एक बूंद पाकर भी मनुष्य कृतकृत्य हो सकता है।

निस्सन्देह हमारा आपा महान् है। और निश्चय ही हमारा परमेश्वर अत्यन्त ही महान है। इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरा आश्चर्य और शेष रह जाता है वह है इन दोनों के मिलन से उत्पन्न होने वाली वह धारा जिसमें सन्तोष और शान्ति की-आनन्द और उल्लास की-सुख और साधनों की असीम तरंगें निरन्तर उद्भूत होती रहती हैं। यों जब भी दो श्रेष्ठताएँ मिलती हैं तब उनके सुखद परिणाम ही होते हैं। ऋण और धन विद्युत् धाराएँ मिलकर रोमांचकारी शक्ति प्रवाह में परिणत हो जाती हैं और उनके द्वारा अनोखे काम सम्पन्न होते हैं। स्त्री और पुरुष का मिलन न केवल हृदय की-कली को खिला देता है वरन् एक नये परिवार, नये समाज, का सृजन ही आरम्भ कर देता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना सुखद कितना सक्षम और कितना अद्भुत हो सकता है, इसकी कल्पना भी कर सकना यदि हमारे लिये सम्भव रहा होता तो तृष्णा वासना की जिस फूहड़ परितृप्ति के लिये मृग मरीचिका में भटकते फिर रहे हैं उसे छोड़कर अपनी गतिविधियाँ इस दिशा में बदलते जिसमें उस परम मिलन से उत्पन्न होने वाली अजस्र शान्ति और शक्ति की सम्भावना प्रत्यक्ष प्रस्तुत है।

आत्मा और परमात्मा की दो परम सत्ताओं के परस्पर मिलन के प्रयत्न को ही योग कहते हैं। योग शब्द का अर्थ ही जोड़ना या मिलन है। किसका जोड़-किससे जोड़- इसका एक ही उत्तर है आत्मा से परमात्मा का मिलन। यह प्रक्रिया सम्पन्न की जा सके तो उसके परिणाम और फलितार्थ भी उतने ही अद्भुत हो सकते हैं जितने कि ये दोनों तत्व स्वयं में अद्भुत हैं। बूंद समुद्र में मिल जाय तो वह खोती कुछ नहीं अपनी व्यापकता बढ़ा कर स्वयं समुद्र बन जाती है। पानी दूध में मिलकर कुछ खोता नहीं, अपना मूल्य ही बढ़ा लेता है। लोहा पारस को छकर घाटे में थोड़े ही रहता है। यह स्पर्श उसके सम्मान की वृद्धि ही करता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन निस्सन्देह आत्मा के लिये बहुत ही श्रेयस्कर है पर इसके योगदान से परमात्मा भी कम प्रसन्न नहीं होता, इस व्यक्त विश्व में उसकी-अव्यक्त सत्ता रहस्यमय ही बनी रहती है, जो हो रहा है वह पर्दे के पीछे अदृश्य ही तो है। उसे मूर्तिमान दृश्य बनाने के लिए ही तो यह विश्व सृजा गया था। जड़ पदार्थों से वह प्रयोजन पूरा कहाँ होता है। चैतन्य जीवधारी के बिना इस धरती का समस्त वैभव सूना अनजाना ही पड़ा रहेगा। पदार्थों का मूल्य तभी है जब उनका उपयोग सम्भव हो। और उपयोग चेतन आत्मा ही कर सकती है। इस विश्व में जो चेतन समाया हुआ है उसका प्रतीक प्रतिनिधि मनुष्य है।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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