आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
मनुष्य के सहयोग के बिना परमात्मा का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता जिसके निमित्त इस सृष्टि को सृजा गया था, परमेश्वर अकेला था उसने बहुत होने की इच्छा की। बहुत बने तो जरूर पर यदि उसके अनुरूप, उस जैसे न हुए तो उस सृजन का उद्देश्य कहाँ पूरा हुआ? आनन्द तो समान स्तर की उपलब्धि में होता है। बन्दर और सुअर का साथ कहाँ जमेगा। आदमी की शादी कुतिया से कैसे होगी। पानी में लोहा कैसे घुलेगा। बच्चों का खेल बच्चों में और विद्वानों की गोष्ठी विद्वानों में जमती है हलवाई और पहलवान का सङ्ग कब तक चलेगा। कसाई और पंडित की दिशा अलग है। मनुष्यों में ऐसे भी कम नहीं हैं जो परमेश्वर की इच्छा और दिशा से बिलकुल विमुख होकर चलते हैं। असुरता को पसन्द और वरण करने वाले लोगों की कमी कहाँ है? सच पूछा जाय तो माया ने सभी की बुद्धि को तमसाछन्न बनाकर अज्ञानान्धकार में भटका दिया है और वे सुख की तलाश आत्म तत्व में करने की अपेक्षा उन जड़ पदार्थों में करते हैं जहाँ उसके मिलन की कोई सम्भावना नहीं है। मृगतृष्णा में भटकने का दोष बेचारे नासमझ हिरन पर ही लगाया जाता है। वस्तुतः हम सब समझदार कहलाने पर भी नासमझ की भूमिका ही प्रस्तुत कर रहे हैं और आत्मानुभूतियों का द्वार खोलने की अपेक्षा जड़ पदार्थों में सुख पाने की-बालू में तेल निकालने जैसी विडम्बना में उलझ पड़े हैं। जिस उपहासास्पद स्थिति में हमारा चेतन उलझ गया है उसमें न उसे सुख मिलता है न शान्ति ही उलटी शोक-सन्ताप भरी उलझनें ही सामने आकर खिन्नता उत्पन्न करती हैं।
इन परिस्थितियों में उलझे हुए, ईश्वर की अभीप्सित दिशा में चलने और उसके विनोद में सहचर बनने वाले व्यक्ति बनते ही कहाँ हैं? अन्धी भेड़ों की तरह हम सब तो शैतान के बाड़े में जा फँसे। ईश्वर का विनोद प्रयोजन पूरा कहाँ हुआ? उसे साथी सहचर कहाँ मिले? सृष्टि बनी तो सही-जड़ चेतन भी उपजे पर भगवान का खेल जिसमें विनोद और उल्लास का निर्झर निरन्तर झरना चाहिए था अवरुद्ध और शुष्क ही रह गया। शैतान ने भगवान का खेल ही बिगाड़ दिया। यों यह भी एक खेल है पर वैसा नहीं जैसा कि चाहा गया था। इस व्यवधान को हटा सकने में समर्थ जो आत्माएँ परमात्मा की विनोद मण्डली में सम्मिलित हो जाती हैं वे उसकी प्रसन्नता का कारण भी बनती है। अपने को जो परमेश्वर के समीप ले पहुँचते हैं इस विश्व को अधिक सुन्दर बनाने के भगवत प्रयोजन में साथी बनते हैं निस्सन्देह वे परमात्मा की प्रसन्नता बढ़ाते हैं और उसके इस संसार की गरिमा को प्रखर बनाते हैं। ऐसी आत्माओं का मिलना परमात्मा को भी प्रिय एवं सन्तोषजनक ही लगता है।
भक्त भगवान को तलाशता है और भगवान भक्त को ढूँढ़ते हैं। कैसी आँख मिचौनी है कि कोई किसी को मिल नहीं पाता। तथाकथित भक्तों की कमी नहीं वे तलाशते भी हैं पर मिल नहीं पाते। इसलिए कि उन्हें न तो भगवान का स्वरूप मालूम है न प्रयोजन न मिलने का मार्ग। खुशामद और रिश्वत मनुष्यों को आकर्षित करने वाला फूहड़ तरीका ही लोगों के अभ्यास में रहता है सो वे उसे भगवान् पर भी प्रयुक्त करते हैं। लम्बी-चौड़ी शब्दावली का उच्चारण करके भगवान् को इस प्रकार बहकाने का प्रयत्न करते हैं मानो वह उच्चारण को ही यथार्थ समझता हो और मानो अन्तरंग की स्थिति का उसे पता ही नहीं। स्तोत्र पाठ और कीर्तनों का बवंडर हमें सुनाई पड़ता है। यदि उसके मूल में मिलन की भावना भी सन्निहित रही होती तो कितना अच्छा होता। पर मिलन का तो अर्थ ही नहीं समझा जा सका। मिलन का अर्थ होता है समर्पण। समर्पण का अर्थ है विलीन होना। बूँद जब समुद्र में मिलती है तो अपना स्वरूप, स्वभाव सभी खो देती है और समुद्र की तरह ही लहराने लगती है। चूंकि समुद्र खारा है इसलिए बूंद अपने में भी खारापन ही भर लेती है। कोई ऐसा चिह्न शेष नहीं रहने देती, जिससे उसका अस्तित्व अलग से पहचाना जा सके। ईश्वर से मिलन का अर्थ अपने आप को गुण, कर्म स्वभाव की दृष्टि से ईश्वर जैसा बना लेना और अपनी आकांक्षाओं तथा गतिविधियों को वैसा बना लेना जैसा कि ईश्वर की है अथवा उसे हमसे अभीष्ट है। मिलन का इतना दायरा जो समझ सकता है उसी की चेष्टायें तदनुरूप हो सकती हैं। जिसने वस्तुस्थिति को समझा नहीं, वह चापलूसी का-खुशामदखोरी का धन्धा अपनाकर वैसे ही ईश्वर को भी अपने वाक जाल में बाँधना चाहता है जैसे कि अहङ्कारी और मूर्ख लोगों को चापलूस अपने जाल में फँसा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं।
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