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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


दूसरा तरीका ओछे लोगों का कुछ प्रलोभन या रिश्वत देकर किसी को अपने पक्ष में करने का रहता है। वे इस हथियार से ही लोगों से अपना मतलब निकालते हैं थोड़ी रिश्वत देकर फायदा उठाने की कला उन्हें मालूम रहती है। ऐसे ही ईश्वर को भी थोडा प्रसाद, वस्त्र, छत्र, मन्दिर आदि के प्रलोभन देकर उससे अपनी भौतिक आकांक्षायें पूरा करा लेने की घात लगाते रहते हैं। वे याचनायें उनके पुरुषार्थ के अनुरूप हैं या नहीं, उन्हें संभालने सदुपयोग कर सकने की क्षमता भी है या नहीं, वे नीति न्याय एवं औचित्य युक्त भी हैं या नहीं, इतना सोचने की किसे फुरसत? ईश्वर हमारी कामनाएँ पूरी करें और बदले में थोड़ा सा उपहार रिश्वत के रूप में दे दें। इतनी ही बुद्धि इन तथाकथित भक्तों की काम करती है और वे शब्दाडम्बर तथा उपहार प्रलोभन के तुच्छ आधारों से ऊँची बात सोच ही नहीं पाते। फलस्वरूप उन्हें खाली हाथ ही रहना पड़ता है। इन तथाकथित भक्तों में से किसी को भी भगवान नहीं मिलता और उसके सारे क्रिया कृत्य निष्फल चले जाते हैं।

भगवान् को भी भक्त नहीं मिलते और उसे भी इस उपलब्धि के आनन्द से वंचित रहना पड़ता है। माता बच्चे को गोद में तब उठाती है जब टट्टी से सनी हुई देह की सफाई हो जाती है। बच्चा भले ही रोता रहे पर जब तक वह गन्दगी से सना है गोदी में नहीं ही उठाया जायेगा। उसे माता की निष्ठुरता कहा जाय-कहते रहें पर बात तो उसी तरह बनेगी जो उचित है। सफाई आवश्यक है। उसके बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। मनुष्य को अपने कषाय कल्मषों की मलीनता धोनी ही पड़ेगी। अन्तःकरण को निर्मल और निश्छल बनाना ही पड़ेगा। इसके बिना उसकी गणना उन भक्तों में न हो सकेगी जो प्रभु से मिलन का लाभ उठा सकने के अधिकारी होते हैं।

दूसरा कदम है ईश्वर की इच्छानुसार अपने को ढाल लेने का साहस। पतिव्रता स्त्री अपने स्वभाव आचरण एवं क्रिया कलाप को पति की इच्छानुरूप ढाल लेती है। इसके बिना दाम्पत्य जीवन कैसा? मिलन का आनन्द कहाँ? समर्पण के आधार पर ही आत्मा को अद्वैत के रूप में परिणत किया जाता है। ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर उसके संकेत और निर्देशों को ही अपनी आकांक्षा और क्रिया में जोड़ देना, इसी का नाम समर्पण है, मिलन की साधना इसी से पूरी होती है। अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिये ईश्वर के आगे गिडगिडाना और नाक रगड़ना, भला यह भी कोई भक्ति है। लोभ और मोह की पूर्ति के लिए दाँत निपोरना भला यह भी कोई प्रार्थना है? इस प्रकार की भक्ति को वेश्यावृत्ति ही कहा जा सकता है। भौतिक स्वार्थ के लिए किए गये क्रिया-कलापों को ईश्वर के दरबार में भक्ति संज्ञा में नहीं गिना जा सकता। वहाँ तो भक्त की कसौटी यह है कि किसने अपनी कामनाओं और वासनाओं को तिलाञ्जलि देकर ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाया और उसकी मर्जी के अनुरूप चलने के लिए कठपुतली की तरह कौन तैयार हो गया? जो इस कसौटी पर खरा उतरता है-वही भक्त है। भक्त भगवान को अपनी मर्जी पर चलाने के लिए विवश नहीं करता वरन् उसकी इच्छा से अपनी इच्छा मिलाकर अपनी विचार प्रणाली एवं कार्य-पद्धति का पुननिर्माण करता है। तब उसके सामने इस विश्व को अधिक सुन्दर, अधिक समुन्नत और अधिक श्रेष्ठ बनाने की ही एकमात्र इच्छा शेष रह जाती है। अपने आपको काया की तथा परिवार की तुच्छता में आबद्ध नहीं करता वरन् सबमें अपनी आत्मा को-अपनी आत्मा में सबको समाया हुआ समझ कर लोक मङ्गल के लिये जीता है और वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुरूप अपनेपन की परिधि अति व्यापक बना लेता है। तब उसे अपनी काया ईश्वर के देव मंदिर जैसी दीखती है और अपनी सम्पदा ईश्वर की पवित्र अमानत जैसी। जिसका उपयोग ईश्वरीय प्रयोजन के लिये ही किया जाता है।

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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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