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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4164
आईएसबीएन :0000

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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग


शरीर और मन परस्पर ओत-प्रोत हैं। शरीर और मन को मिलाने के लिए कुछ बड़ा काम नहीं करना पड़ता। करना पड़ता है तो इतना ही कि जो नशा पी लिया था, उसे उतर जाने दिया जाय और दुबारा न पिया जाय। नशा पीने से ही शरीर और मन का सम्बन्ध लड़खड़ा जाता है। चलना, करना, बोलना, सोचना-अनियन्त्रित हो जाने की उपहासास्पद स्थिति इसलिए बनती है कि नशे की खुमारी शरीर और मन का सम्बन्ध गड़बड़ा देती है। दोनों अलग-अलग दिशा में जाते-स्वच्छन्द विचरते दीखते हैं। उसमें दोष नशे का है, यदि नशे का परित्याग कर दिया जाय तो शरीर और मन की समताएकरूपता में कोई अन्तर दिखाई न पडेगा। ईश्वर और जीव के बीच में माया का नशा ही प्रधान रूप में बाधक है। यह पर्दा हटा कि उसकी आड़ में बैठे भगवान के दर्शन हुए। बाधक तो यह झीना सा पर्दा ही है।

निद्रा ग्रस्त हो जाने पर शरीर और मन के सम्बन्ध गड़बड़ा जाते हैं। शरीर कहीं पड़ा रहता है-मन कहीं घूमता है। विलगाव को देखकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि शरीर और मन दूर हैं। असम्बद्ध हैं। इन्हें इकट्ठा करने के लिए कोई बहुत भारी प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ेगा। दोनों की एकता अविच्छिन्न है। अन्तर तो निद्रा ने डाला है। शरीर को मृतक जैसा उसी ने बनाया है। मन को देह से असम्बद्ध करने के लिए वह निद्रा ही कारण है। यदि उसे हटा दिया जाय तो जागते ही दोनों की एकता फिर यथावत हो जायेगी। शरीर का मिलन संयोग और मन दोनों परस्पर घुले मिले-और साथ-साथ मिल-जुलकर काम करते दिखाई देंगे।

आत्मा और परमात्मा दोनों अभिन्न हैं। भिन्नता तो अविद्या रूपी निद्रा ने उत्पन्न की है। इसे हटाना भगाना ही इस दुःखदायी वियोग के अन्त करने का एकमात्र उपाय है।

ईश्वर प्राप्ति अति सरल है। क्योंकि वह जीवन की महती आवश्यकता है। उसकी साधना सर्वथा सुगम है। उसमें कोई ऐसी कठिनाई नहीं है जिसके लिए भारी दौड़-धूप करने और सरंजाम जुटाने की जरूरत पड़े। तपश्चर्या, योग साधना, योग प्रक्रिया का मात्र प्रयोजन इतना है कि नशे की खुमारी और निद्रा की मूर्छना को हटा दिया जाय। जो साधना इस प्रयोजन को पूरा कर सकेगी उसी से ईश्वर प्राप्ति का सरल प्रयोजन सुगमता पूर्वक पूरा हो जायेगा।

व्यवधान केवल एक है-इसे सरल भी कह सकते हैं, कठिन भी। वस्तुतः वह साहसी के लिए अति सरल है और असमंजस ग्रस्त भीरु व्यक्ति के लिए अति कठिन। करना सिर्फ इतना भर है कि हम अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व को शरी र न मानें-सुखों की खोज बाहर के पदार्थों में ढूँढना बन्द कर दें। बर्हिमुखी दृष्टिकोण को अन्तर्मुखी बनायें। अपने को आत्मा मानें। आत्मा का हित साधन प्रमुख मानें। उसी में रुचि लें-उसी की इच्छा करें और उसी की व्यवस्था बनायें। अपना चिन्तन इसी लक्ष्य पर नियोजित करें और कार्यक्रम का पुननिर्धारण इस दृष्टि से करें कि यह जीवन परमेश्वर का है। परमेश्वर के लिए है और वही कार्य किये जायेंगे जो परमेश्वर द्वारा अपने लिए नियत निर्धारण किए गए हैं। पदार्थों में सुख खोजने की अपेक्षा प्रवृत्तियों में उत्कृष्टता व आनन्द तलाश करना पड़ेगा। यह परिवर्तन जितना स्पष्ट होता जायेगा ईश्वर उसी अनुपात से अपने समीप प्रस्तुत दिखाई देगा।

चिर संचित कुसंस्कारों से दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों से जूझना यही एक कठिन प्रसङ्ग है। इसी मोर्चे पर हारने से साधना असफल होती है। तपस्वी का विजय ध्वज इसी शिखर पर गढ़ा हुआ है कि वह अज्ञानान्धकार में भटकने, भेड़ों का अन्धानुकरण छोड़कर स्वतन्त्र कर्तृत्व अपनाने में समर्थ हुआ या नहीं। अपना रास्ता आप बनाने की तपस्या-अपनी राह पर आप चलने की साधना जो कर सकाबर्हिमुखी दृष्टि को अन्तर्मुखी बना सका-भीतर के आकर्षण प्रलोभन और बाहर के उपहास प्रतिरोध का जो सामना कर सका-इस उत्कृष्टता पर आरूढ़ योद्धा की सर्वत्र विजय है। जिसने अपने को जीत लिया समझना चाहिए उसने ईश्वर को जीत लिया यह सरलतम है और कठिनतर भी।



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    अनुक्रम

  1. सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और उसका सान्निध्य

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