आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
भगवान् के लिये द्वार खोलें-स्थान बुहारें
भगवान हमारे अन्दर प्रवेश करना चाहते हैं, पर करे कैसे? द्वार तो हमने सभी बन्द कर रखे हैं। भगवान हमारे भीतर निवास करना चाहते हैं, पर वहाँ जगह तो सभी भरी पड़ी है।
अन्तरङ्ग के कोने-कोने में हमने कबाड़ भर रखा है। न जाने कितनी कामनाएँ-कितनी तृष्णाएँ- कितनी लालसाएँ उसमें डेरा डाले पड़ी हैं। ईर्ष्या, द्वेष, अहङ्कार, छल, दम्भ और मत्सर जैसे दुष्ट दस्युओं ने रही बची जगह घेर रखी है। अब उसमें तिल रखने भर की जगह नहीं। इस क्षेत्र पर पूरा आधिपत्य इन्हीं का है। इनका परिवार ही सारे भवन को घेरे बैठा है। बाहर से और किसी को न आने देने के लिये इन्होंने भीतर से कपाट बन्द कर रखे हैं। भगवान के लिए भी प्रवेश निषेध है।
पूजा उपासना का उपक्रम हम इसलिए रखा करते हैं कि भगवान हमारे भीतर प्रवेश करे और अन्त:करण में निवास करे। उन्हें तो हम केवल तृष्णाओं और वासनाओं को समुन्नत परिपुष्ट करने में सहायता करने भर के लिये बुलाते हैं।
एक दु:खी लकड़हारा जङ्गल में मौत को पुकार रहा था। मौत को दया आई और उसने प्रकट होकर पूछा- मेरे लिए सेवा बताओ, तैयार हूँ। लकड़हारा घबरा गया। बुला तो लिया पर अब उससे क्या काम कराये? उसने सकपकाते हुए कहा-लकड़ी का गट्ठा बहुत भारी था, उसे उठा कर सिर पर रखवा देने के लिए ही आपको बुलाया था। यह सहायता करके आप कृपा पूर्वक जल्दी चली जाय। मौत ने गट्ठा सिर पर रखवा दिया और मुस्कराती हुई चली गई।
भगवान् को हम लकड़हारे की तरह ही बुलाते हैं, सिर पर गट्ठा रखवाने के लिए। उसकी गोदी में बैठने का हमारा मन हैं कहाँ? मन तो इन नट-नर्तकों के साथ हास-परिहास में उनके स्वागत सत्कार में लगा है, जिनने अन्तरंग का कोना-कोना घेर कर अपने कब्जे में कर लिया है।
हमारी प्रार्थना में बल कहाँ है जो भगवान को प्रभावित कर सके। गन्दगी से सने पात्र में रखकर किसी संभ्रान्त व्यक्ति को भोजन दिया जाय तो वह उसे कैसे स्वीकार करेगा? हमारा व्यक्तित्व भीतर और बाहर बेतरह गन्दगी से भरा पड़ा है। उसमें रखकर दी हुई प्रार्थना भगवान कैसे ग्रहण करेंगे?
बर्तन में दूध भरना हो तो पहले से उसमें भरी हुई मिट्टी को निकाल कर फेंकना पड़ेगा, तभी उस खाली जगह में दूध भरा जा सकेगा। यदि हमें भगवान को अपने भीतर बुलाना हो तो उनके लिए उस स्थान को खाली कराना पड़ेगा जहाँ स्वार्थ और लोभ के परिवार ने अपना अड्डा जमा रखा है।
भगवान् को बुलाना ठीक है। पर उनके बैठने के लिए जगह बनानी चाहिए। पूजा प्रार्थना करना ठीक है। पर पूजा पात्रों की तरह अपने हाथों को सत्कर्मों द्वारा और वाणी को सत्य द्वारा भी शुद्ध करना चाहिए। जिस मन से पूजा प्रार्थना की जाती है पहले उसकी मलीनता धोनी चाहिए। गन्दे पात्र में रखी पूजा सामग्री भगवान को कैसे स्वीकार होगी। कामनाओं से भरे मन में उन भावनाओं का उदय कैसे होगा जो भगवान को द्रवित करने में समर्थ होती है।
स्वार्थ और संकीर्णता कपाट खोलें तो भगवान का भीतर प्रवेश हो। मुख में भरे हुए तृष्णा के ताम्बूल खाली हों तो स्तुति की जाय। प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होने में विलम्ब का कारण केवल एक है उसे ग्रहण करने और रखने के लिए पात्रता का न होना। यदि भीतर का कपाट खोल दें और भगवान के बैठने के लिए स्थान खाली कर दें तो उनका प्रवेश, आगमन और अनुग्रह तनिक भी कठिन न रह जायेगा।
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