आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोगश्रीराम शर्मा आचार्य
|
111 पाठक हैं |
आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग
सिद्धि और सिद्ध पुरुषों का स्तर
भौतिक सिद्धियाँ तो उन कीड़े-मकोड़ों में भी पाई जाती है जो चलते समय पैर के नीचे दबकर मर जाते हैं। मक्खी आकाश में उड़ सकती है, बतक पानी पर चल सकती है, मछली जल में रह सकती है, गीध दूर तक देख सकता है, मकड़ी को वर्षा का भविष्य ज्ञान रहता है, जुगनू का तेज चमकता है, सर्प दंश से क्षण भर में मृत्यु होती है। कहते हैं, नीलकण्ठ पक्षी के दर्शन से लक्ष्मी मिलती है। दर्द बन्द करने में छिपकली का तेल काम आता है। गिरगिट कई तरह के रूप बदलता है। यदि इन्हीं सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधना की जाय तो सफलता के अन्तिम शिखर पर चढ़ते-चढ़ते वहीं पहुंचा जा सकता है जहाँ यह कीड़े-मकोड़े पहले से ही पहुँचे हुए हैं।
लोगों को कौतूहल दिखाकर अपनी विशेषता सिद्ध करने की आत्मश्लाघा पूरी करने की ही यदि हवस हो तो इसके लिए इतनी कष्ट साध्य गतिविधि अपनाने और सामान्य सुख सुविधायें छोड़ने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। लोगों को अचम्भे में डालने का काम बाजीगर बड़ी अच्छी तरह करते हैं। वे इतनी अलौकिकताएँ दिखाते हैं कि आश्चर्यचकित होना पड़ता है। यह 'कला' कुछ भी मुश्किल नहीं है। हाथ की सफाई का अभ्यास थोड़े दिनों में हो जाता है और बाजीगरी सिखाने वाले उन रहस्यों को सिखा भी सकते हैं।
देखना यह है कि इससे अपना क्या लाभ हुआ और क्या दूसरों का हित सधा? दस पैसे नाव वाले को देकर आवश्यकता के समय नदी पार हो सकती है। रोज तो कोई पानी पर चलता नहीं, हर जगह पुल है, नावें मौजूद है इस सिद्धि को कोई व्यक्ति बहुत कष्ट सहकर प्राप्त करले तो उसे दस पैसे नाव वाले को न देने भर की ही बचत हुई। बीमार को अच्छा करने में सिद्ध पुरुष जितना लाभ पहुँचाते हैं उससे हजारों गुने अधिक रोगी एक डाक्टर अच्छे करता है। योगी कितने अन्धों को आँखें देगा, पर आँख के डाक्टर तो अपनी जिन्दगी में हजारों अन्धों को अच्छा करते हैं। योगी बनने की अपेक्षा डाक्टर बनना क्या बुरा है। उसमें कष्ट भी कम-लाभ भी अधिक। भारत से इङ्गलैण्ड उड़कर जाने की सिद्धि बहुत तप के बाद मिलेगी पर हवाई जहाज में थोड़ा सा किराया देने पर वह कार्य आसानी से हो सकता है। दूर दर्शन, दूर श्रवण के लिये जब टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन मौजूद हैं तो फिर उन सिद्धियों को प्राप्त करने की क्या जरूरत रह गई।
साधना, तपश्चर्या और योगाभ्यास का मात्र एक ही प्रयोजन है अपने अन्तःकरण में प्रसुप्त अगणित सत्प्रवृत्तियों का जागरण। सद्भावनाओं का उन्नयन। दृष्टिकोण का परिष्कार। कर्तृत्व में देवत्व के समावेश का अभ्यास। सिद्धियों की उत्कृष्टता इसी कसौटी पर परखी जाती है। इसी से अपना भला होता है और इसी से संसार का।
आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना। अन्तःकरण को प्रेम से लबालब भर देना-निश्छल निर्मलता विकसित करना और लोक-मङ्गल के लिए आत्मोत्सर्ग करना। यह सिद्धियाँ जिनके पास हैं असल में वही सच्चा और उच्चकोटि का सिद्ध पुरुष है।
|