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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


परिवार संस्था को यदि सच्चे अर्थों में जीवित रखना, उसे मात्र भेड़ों का बाड़ा नहीं रहने देना है, तो रास्ता एक ही है कि उसका सुनियोजन और संचालन अध्यात्म आदर्शों की प्रमुखता देते हुए किया जाए। शरीर के अवयवों जैसा पारस्परिक सघन सहयोग, घर के सदस्यों के बीच पनपते अधिकारों की उपेक्षा और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता का आदर्श यदि परिवार का हर व्यक्ति निबाहे तो उस उद्यान के सभी पेड़-पौधे शोभा-सुषमा से हरे-भरे दिखाई पड़ेंगे। अपने सुगंध-सौंदर्य से सारे वातावरण को हर्षोल्लास से भर रहे होंगे।

(५) व्यक्तिगत जीवन की पाँचवीं समस्या आत्मिक विकास की है। आत्मिक जीवन में परमात्मा का अनुग्रह, आंतरिक शांति, आत्म संतोष एवं आत्म लाभ होने की तृप्ति को सफलता का चिह्न माना जाता है। सिद्धियाँ और चमत्कार इसी स्तर पर पहुँचे हुए व्यक्तियों में देखे जाते हैं। वे महामानव बनते हैं। जीवात्मा के महात्मा, देवात्मा और परमात्मा के स्तर पर विकसित होने का लाभ इसी मार्ग पर चलते रहने वालों को प्राप्त होता है। स्वर्ग और मुक्ति का आनंद इसी प्रगति के साथ संबद्ध है। जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए आत्मशक्ति को प्राप्त करना होता है।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूजा-उपासना के उपचार काम में लाए जाते हैं, जो उचित भी है और आवश्यक भी। किंतु यह ध्यान में रखा जाए कि यह उपचारात्मक कर्मकांड साध्य नहीं साधन है। इनका उद्देश्य अंतरात्मा के गहन स्तर में अध्यात्म की आस्थाओं के लिए जगह बनाना और उन्हें विकसित होने की पृष्ठभूमि बनाना भर है। चापलूसी करने, प्रलोभन देने या रिझाने वाले उपक्रम बनाने में उस परमात्म सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जो सर्वांतर्यामी और सृष्टि संचालक होने की महानता धारण किये हुए हैं। उसे उपचारात्मक बालक्रीड़ाओं में वशवर्ती नहीं किया जा सकता।

ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने का अंतरात्मा में परमात्मा के अवतरण का एक मात्र आधार एक ही है कि दोनों का स्तर एक जैसा हो। सजातीय ही आपस में घुलते हैं। दूध में पानी मिल सकता है। संतों का संत समागम होता है और दुष्टों की दुर्जन गोष्ठी दुरभिसंधियाँ रचती हैं। ईश्वर की समीपता का लाभ उसी स्तर की मनोभूमि बनाए बिना और किसी प्रकार संभव नहीं हो सकता। आत्मशांति, आत्मिक प्रगति और आत्मशक्ति के कारण दिव्य जीवन का लाभ मिलता है और उसी के सहारे उन विभूतियों की उपलब्धि होती है, जो ईश्वर अनुग्रह के कारण मिलने वाली फलश्रुतियों के रूप में समझी, समझाई और बताई जाती हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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