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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


आत्मा और परमात्मा के बीच की दीवारें कलुष-कषायों के ईंट से चुनी गई हैं। दोनों अति समीप होते हुए भी अति दूर इसीलिए बने हुए है कि अपनाई गई असुरता खाई बनकर बीच में अड़ गई है। इसे पाटे बिना दोनों का मिलन संभव नहीं। अंगारों पर राख की परत जम जाती है, तो वह देखने में काला लगता है और छूने में गुनगुना भर रहता है। यदि इस परत को हटा दिया जाए तो अंगारा फिर पूर्व स्थिति में आ जायेगा और उसकी चमक तथा गर्मी वैसी ही दृष्टिगोचर होगी जैसी कि पहले रहती थी। आत्मा-परमात्मा का अंश है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएँ विद्यमान हैं। विक्षेप उसी अवांछनीयता द्वारा उत्पन्न किया हुआ है; जिसे माया, भ्रांति, अज्ञान-आवरण आदि के नामों से पुकारते हैं।

पूजा-पाठ की आरंभिक और योग-तप की उच्च स्तरीय उपासना पद्धति बताई और अपनाई जाती है। गहराई से देखने पर इस समूची प्रक्रिया का उद्देश्य आत्म-सुधार और आत्म परिष्कार के लिए अंतःभूमिका में अभीष्ट पृष्ठभूमि बनाना भर है, जिसकी उपासना इस मूल प्रयोजन को जितनी मात्रा में पूरा कर देती है, उसे उतनी ही मात्रा में आत्मोत्कर्ष का लाभ मिलता है। इस आत्मोत्कर्ष को ही दूसरे शब्दों में आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वरीय अनुग्रह के नाम से पुकारा जाता है। जिसकी उपासना इस मूल प्रयोजन को पूरा नहीं करती, रिझाने वाले उपचारों तक भटकती रहती है, उसके पल्ले कुछ पड़ता नहीं। ऐसे ही लोग साधना की निरर्थकता का रोना रोते और असफलता की शिकायत करते पाए जाते हैं। पूजा-उपचारों से देवता के प्रसन्न होने और मनचाहे वरदान देने की आशा लगाए रहने वाले व्यक्ति भ्रांतियों की भूलभुलैयों में चक्कर भर काटते रहते हैं, उन्हें वह लाभ नहीं मिलता जो आत्म-साधना से मिल सकता है, मिलता रहा है।

आत्म-चिंतन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की चार दीवारों पर आत्मिक प्रगति का भवन खड़ा होता है। हवाई किला बनाकर, कल्पना की उड़ानें तो उड़ी जा सकती हैं, पर यदि मजबूत महल बनाना है और उसमें निवास करने का वास्तविक आनंद लेना हो तो जमीन पर उसकी सुदृढ़ आधारशिला रखी जानी चाहिए। ईश्वरीय अनुग्रह की अमृत वर्षा तो सर्वत्र अनवरत रूप में होती रहती है; उसके लिए माँगने कहीं नहीं जाना है और अनुरोध-आग्रह किसी से नहीं करना है। साधना का उद्देश्य एक ही है, आत्मशोधन। दुष्कर्म से स्थूल शरीर, दुर्बुद्धि से सूक्ष्म शरीर और दुर्भावों के कारण शरीर में विकृतियाँ भर जाती हैं और समूचा व्यक्तित्व पतन के गर्त में जा गिरता है। इसी दुर्गति के खड्ड में पड़े हुए लोग नित्य उदय होने वाले सूर्य के प्रकाश से वंचित रहते हैं। ईश्वरीय अनुग्रह से वंचित रहते हैं। ईश्वरीय अनुग्रह से वंचित रहने का कारण हमारी अपनी ही विकृतियाँ होती हैं। कठोर चट्टान पर अनवरत वर्षा होते हुए भी हरियाली उत्पन्न नहीं होती। इसमें बादलों से अनुरोध करना व्यर्थ है। चट्टान को ही कोमल रेत में बदलना पड़ेगा।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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