आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
ईश्वर से विविध विधि प्रार्थनाएँ की जाती हैं। उपासनाओं के अनेकानेक विधि-विधान हैं। इनमें प्रकारांतर से आत्मशोधन के सभी संकेतों की ही भरमार है। वेदांत दर्शन के अनुसार अपना परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। यह परिष्कार ही साधना विज्ञान की पृष्ठभूमि है। ब्रह्मविद्या के अंतर्गत तत्त्वज्ञान की सुविस्तृत विवेचना के लिए दर्शनशास्त्र का सृजन हुआ है। उसके अनेक निर्धारणों पर पैनी दृष्टि डाली जाए और खोजा जाए कि आध्यात्मिक जीवन का इतना विशालकाय कलेवर किसलिए खड़ा किया गया है ? तो इस प्रश्न के उत्तर में एक ही निष्कर्ष उभरकर आयेगा कि अंतकरण: पर चढ़ी हुई पशु-प्रवृत्तियों को निरस्त करके उस जगह दैवी-विभूतियों को, उच्चस्तरीय आस्थाओं को प्रतिष्ठापित किया जाए। यही एकमात्र वह मार्ग है जिस पर चलते हुए आत्मा को परमात्मा बनने का अवसर प्राप्त होता है। नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, अणु से विभु, लघु से महान् बनने का एक ही उपाय है कि अपनी तुच्छताओं, संकीर्णताओं, दुर्बलताओं की बेड़ियाँ काट डाली जाएँ और महानता के उन्मुक्त आकाश में विचरण किया जाए।
धुंधले दर्पण में मुँह दिखाई नहीं पड़ता-गंदले पानी की तली में पड़ी हुई वस्तु ओझल रहती है, अंतर की मलीनताओं के कारण ही आत्मा मूर्छित पड़ी रहती है और परमात्मा खोजने से भी नहीं मिलता। वासना और तृष्णा के आवरण आँखों पर पट्टी बाँधे रहते हैं। लोभ, मोह के रस्से भव-बंधनों में जकड़े रहते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता का ग्रह ही जीव रूप गज को अपने मुँह में निगले रहता है। इनसे छुटकारा मिल सके और उदात्त चिंतन को दृष्टि मिल सके तो समझना चाहिए कि जीवन मुक्त हो गया, मुक्ति मिल गई। परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम ही स्वर्ग है। जो अपनी मौलिक गरिमा को समझ सका, विश्व उद्यान में अपनी माली जैसा कर्तव्य परायणता निश्चित कर सका, अपनी बहिरंग एवं अंतरंग गतिविधियों को उच्चस्तरीय बना सका, समझना चाहिए, उसने अधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक व्यथा-वेदनाओं की नरक वैतरणी पार कर ली और स्वर्ग के राज्य का आधिपत्य प्राप्त कर लिया। स्वर्ग एवं मुक्ति उस विवेक सम्मत दूरदर्शी दृष्टिकोण में सन्निहित है, जिसे अध्यात्म के नाम से जाना माना जाता है।
महामानव, सिद्ध पुरुष, महात्मा, देवात्मा, अवतारी चमत्कारी आदि के नाम से जिन विशिष्ट आत्माओं के चरणों में जन साधारण की श्रद्धांजलि अर्पित होती है। जो स्वयं भार ढोते और दूसरों को अपनी नाव पर बिठाकर भवसागर से पार लगाते हैं, इन्हें ही ऋषि एवं देवमानव कहते हैं। इनकी एक ही विशेषता, एक ही सफलता होती है कि उन्होंने अपने कषाय-कल्मषों को धो डाला है। क्षुद्रता का परित्याग कर महानता को अपना लिया है। ऐसे आप्त पुरुषों में भगवान् की दिव्य ज्योति आलोकित पाई जाती है और उनके संपर्क में आने वालों को पारस छूकर, लोहे का सोना बनने जैसा लाभ प्राप्त होता है।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?