आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
इस भौतिकवादी दृष्टिकोण ने पाश्चात्य देशों में परिवार संस्था का दम घोंट दिया। वहाँ वासना के लिए विवाह होते हैं और इसी पशु प्रवृत्ति से टकराकर हरदिन जोड़े जुड़ते-बिछुड़ते हैं। पति-पत्नी में से किसी को विश्वास नहीं होता कि हम लोगों का आज का सहचरत्व कल तक भी स्थिर रह सकेगा या नहीं। अविश्वास और अनिश्चय से भरे दंपत्ति जीवन कितने नीरस, कितने अस्थिर, कितने बनावटी होते हैं और पति-पत्नी के बीच कितनी बड़ी दीवार खड़ी रहती है, इसे कोई उन तथाकथित सभ्य लोगों के बीच रहकर भली प्रकार देख सकता है। अभिभावकों को अपनी संतान की अवज्ञा मिलती है और संतान को अभिभावकों की उपेक्षा। ऐसी दशा में संयुक्त परिवारों का वह स्वर्गीय वातावरण कैसे स्थिर रह सकता है, जो भारत की अपनी मौलिकता और अपनी विशेषता है। जिसके लिए आज भी समस्त संसार की आशा भरी दृष्टि लगी हुई है और सोचा जा रहा है कि इसी पद्धति को पुनर्जीवित करके, व्यक्ति का निर्माण और समाज का विकास संभव है।
परिवार संस्था को नव जीवन मिल सके तो वह अपने छोटे-छोटे घरौंदे-स्वर्गीय अनुभूतियों को अपनी इसी धरती पर दृश्यमान कर सकते हैं। यह नर-जीवन, गृह-विज्ञान के नाम से प्रचलित सुव्यवस्था और सुसज्जा का प्रकरण पूरा कर लेने भर से नहीं मिल सकता, इसके लिए अध्यात्म दृष्टिकोण का गहराई तक समावेश करना होगा। घर की आदर्शवादिता की प्रयोगशाला, पाठशाला, व्यायामशाला के रूप में विकसित करना होगा। आहार-विहार से लेकर दैनिक क्रियाकलाप और पारस्परिक व्यवहार में ऐसे सूत्रों का समन्वय करना पड़ेगा, जिसके सहारे परिवार के सदस्यों में से हर एक को उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए अदम्य उत्साह पैदा हो सके।
धन अपनी जगह उपयोगी हो सकता है, सुव्यवस्था को भी सराहा जा सकता है, पर स्मरण रहे इतने भर से ही परिवार संस्था प्राणवान् न हो सकेगी। नई उच्च शिक्षा दिलाकर संतान को कमाऊ पूत बना देना उचित है। उनके लिए प्रचुर साधन जुटा देने का भी महत्त्व हो सकता है, पर ध्यान रहे यदि उनमें सद्गुणों का बीजारोपण न हो सका-सद्भावनाएँ विकसित न की जा सकी, न स्वभाव में सज्जनता का समावेश हुआ, तो वे समृद्ध बन जाने पर भी व्यक्तित्व घटिया रहने पर सदा उलझनों में ही उलझे रहेंगे। स्वयं कुढ़ते रहेंगे और साथियों को भी कुढ़ाते रहेंगे। ऐसे व्यक्ति न स्वयं चैन से रहते हैं और न संपर्क में आने वाले किसी को चैन से रहने देते हैं। स्वयं गिरते हैं और साथियों को भी गिराते हैं। ऐसी पीढ़ियाँ बढ़ाकर कोई मिथ्या अहंकार भले ही कर ले कि हमने पीढ़ियों को पदवीधारी या कमाऊ बना दिया, पर वस्तुतः ऐसे उत्पादन पर किसी की आत्मा गर्व अनुभव नहीं कर सकती। परिवार तो वही धन्य है, जिनमें से श्रेष्ठ परंपराओं का निर्वाह कर सकने वाले चरित्र बल आदर्शवादी नर-रत्नों का उद्भव हो सके। ऐसे सुसंस्कृत परिवार केवल वही बन सकते हैं, जिनमें अध्यात्म दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी गई हो। इसकी उपेक्षा की जाती रहे तो फिर यह सोचना व्यर्थ है कि भारत के प्राचीन आदर्शों की मूर्तिमान प्रयोगशाला के रूप में स्वर्गीय उल्लास की प्रतिच्छवि प्रस्तुत करने वाले देव मंदिरों के रूप हमें अपने परिवारों को विकसित कर सकने का सौभाग्य प्राप्त हो सकेगा।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?