आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
२. सामाजिक संदर्भ में
यह संसार भगवान् का सुरम्य उद्यान है। मनुष्य उसका ज्येष्ठपुत्र राजकुमार। उसे इस उपवन की उल्लास भरी सैर करने भेजा है और पर्याप्त सुविधा-साधन देकर, यहाँ की परिस्थितियाँ अधिक अच्छी बनाने में कुशलता दिखाने का काम सौंपा गया है। इस स्थिति में मनुष्य प्राणी को निरंतर ही हर्षोल्लास ही हर्षोल्लास की अनुभूति होनी चाहिए। बुद्धि-वैभव में वह क्षमता है कि मरुस्थल में फूल खिला सके, फिर क्या कारण है कि उससे संपन्न होते हुए भी मनुष्य को रोना-रुलाना, कलपना-कलपाना पाया जाता है ?
सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व पाने वाला मनुष्य-प्राणी इस धरती को स्वर्ग बना सकने की संभावनाओं में पूरी तरह सुसज्जित है। यहाँ निर्वाह ही नहीं आनंद और उल्लास के प्रचुर साधन पग-पग पर उपलब्ध हैं। मनुष्य का इस पृथ्वी पर एकछत्र राज्य है। उसकी उपलब्धियों पर आश्चर्य प्रकट किया जाता है, किंतु इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि हर समस्या को सहज ही सुलझा सकने में समर्थ मनुष्य को किस कारण इतनी अधिक गुत्थियों में जकड़ना पड़ा है, जो सुलझाने में नहीं आती और डरावनी काली घटाओं की तरह निरंतर अधिक सघन होती चली आती हैं।
प्रगति के नाम पर जहाँ मनुष्य ने अनेक वस्तुएँ कमाई हैं, वहाँ समस्याएँ भी कम नहीं बढ़ाई हैं, कठिनाइयों में भी कम उन्नति नहीं की है। अब से कुछ शताब्दी पूर्व तक मनुष्य इतने व्यथित और निराश नहीं थे जितने कि अपने प्रगतिशील कहे जाने वाले समय में उत्पन्न हुए हम लोग हैं। तब साधन भले ही कम रहे हों पर लोग मिल-जुलकर रहते थे और एक-दूसरे के प्रति सहयोग सद्भाव की उदार आत्मीयता अपनाकर अधिक सुखी और संतुष्ट रहते थे। लगता है वह सौभाग्य अपने हाथों से कोई और महादैत्य क्रमशः छीनता ही चला जा रहा है।
सिंह-व्याघ्र के आक्रमण-आतंक की बात समझ में आती है। साँप-बिच्छू का, प्रकृति-प्रकोप का भय समझ में आता है, पर मनुष्य ही मनुष्य के शोषण का शिकार बने, मनुष्य ही मनुष्य का रक्तपान करने में संलग्न दिखाई पड़े-मनुष्य को मनुष्य के ही आतंक से काँपना पड़े, यह स्थिति अत्यंत विलक्षण है। सहकारी स्वभाव का होने पर भी अपराधों और आक्रमणों की धूम क्यों बनी रहे ? उस विचित्रता का उत्तर तो प्राप्त किया ही जाना चाहिए।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?