आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
राजनीति के क्षेत्र में विग्रहों का अंत नहीं। शासन तंत्र चलाने वाले नेताओं के मस्तिष्क पर इतना दबाव रहता है कि वे चैन से एक दिन भी नहीं रह पाते। तनाव के कारण उनका स्वास्थ्य क्षीण होता जा रहा है और अधिकांश को अकाल में ही काल-कवलित होना पड़ता है। वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का हल खोजने के लिए ईमानदारी से प्रयत्न करते हैं, पर कुछ बन नहीं पाता। एक सिरे को ढकने की बात बन नहीं पाती कि दूसरा सिरा उघड़कर नई चिंता उत्पन्न कर देता है।
सामाजिक समस्याएँ भी अपने युग में कम नहीं हैं। समाज के मूर्धन्य व्यक्ति उनसे चिंतित हैं और समाधान के लिए अपने ढंग से प्रयत्न करते हैं, पर देखने में यही आ रहा है कि एक गुत्थी सुलझने नहीं पाती कि दूसरी नई उठकर खड़ी हो जाती है। एक रोग अच्छा नहीं हो पाता कि दूसरा नया उठ खड़ा होता है। एक युद्ध समाप्त होने नहीं पाता कि नये युद्ध की नींव पड़ जाती है।
यहाँ हमें समझना होगा कि समाज की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, व्यक्तियों का समूह ही समाज है। व्यक्ति जैसे होंगे वैसा ही समाज बनेगा। वैयक्तिक समस्याएँ ही इकट्ठी होकर सामाजिक समस्याएँ बन जाती हैं। आज की परिस्थितियों में समाज और राष्ट्र एक ही बात है। किसी जमाने में वे दो भी थे पर आज तो सामाजिक परंपराओं को राष्ट्रीय मानकर, चलने में किसी को कोई बड़ी आपत्ति नहीं है। सामाजिक-राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रस्तुत असंख्य समस्याओं का वर्गीकरण किया जाए तो उन्हें पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है- (१) जन स्वास्थ्य की समस्या (२) अपराध और युद्ध (३) आर्थिक असंतुलन संपत्ति की कमी। (४) बढ़ती हुई जनसंख्या (५) स्वार्थपरता और विकृत आग्रह। इन पाँचों के अंतर्गत उन समस्त समस्याओं को लिया जा सकता है, जो अनेक राष्ट्रों के सामने अनेक आकृति प्रकृति की बनकर सामने आती रहती है। इन्हीं को सुलझाने के लिए समाजसेवी, बुद्धिजीवी, राजनेता, वैज्ञानिक अर्थशास्त्री विभिन्न ढंगों से सोचते, विभिन्न उपाय खोजते और विभिन्न कदम उठाते देखे जाते हैं। कल्याणकारी एवं सुरक्षात्मक योजनाओं का निर्धारण उन्हीं प्रयोजनों के लिए, संघ के मंच पर इन्हीं समाधानों के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयत्न होते और कूटनीतिक आदान-प्रदान चलते हैं। इतने पर भी देखा यही जाता है कि बात कुछ बन नहीं रही है और वांछित समाधान निकल नहीं रहे हैं।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?