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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


कुछ समय पहले यह समझा जाता था कि समृद्धि बढ़ने से समाज की इन समस्याओं का हल निकल आयेगा, किंतु यह प्रयोग सुसंपन्न कहे जाने वाले देशों में हो चुका है। अमेरिका और योरोप के अनेक देश भौतिक प्रगति के हर क्षेत्र में पिछड़े देशों की तुलना में अत्यधिक ऊँचाई तक बढ़ गए हैं। पर वहाँ के लोगों की अशांत मनः स्थिति, बढ़ती हुई अपराधी प्रवृत्ति तथा दूसरी सामाजिक विकृतियों को देखकर लगता है कि मात्र भौतिक उन्नति को सब कुछ मान बैठना भूल है। समुन्नत कहलाने वाले देशों में इन व्यक्तियों की संख्या दिन-दिन बढ़ रही है। जो थकान और तनाव की मनःस्थिति से निरंतर क्षुब्ध रहते हैं और नींद की गोली खाकर कुछ देर आधी अधूरी नींद ले पाते हैं। स्वाभाविक स्नेह-सद्भाव घट जाने से संयुक्त परिवार प्रणाली के आनंद को गँवा बैठे। अनिश्चित और अविश्वस्त दांपत्य जीवन को कृत्रिम आकर्षणों के सहारे मधुर बनाने के प्रयोग सर्वथा असफल हो रहे हैं और परिवार संस्था टूट रही है। रोज तलाक, रोज विवाह की विडंबना ने दांपत्य जीवन का आनंद ही नष्ट कर दिया। संतान और अभिभावकों के बीच स्नेह-श्रद्धा के सूत्र अत्यंत दुर्बल पड़ गए। पशु-पक्षियों में बच्चों और अभिभावकों का रिश्ता शिशु काल तक ही सीमित रहता है। समर्थ होते ही वह रिश्ता टूट जाता है। मनुष्य समाज में भी यही बात बढ़ रही है। विवाह का उद्देश्य काम-कौतुक बन रहा है। यह पशुता की ओर लौटना हुआ। फिर पशु-जीवन से बढ़कर पारिवारिक जीवन का आनंद भी कैसे मिलेगा ? भटका हुआ मनुष्य, निष्ठारहित, परिवार आदर्शविहीन समाज की जो दुर्गति होनी चाहिए, उसे हम तथाकथित समृद्ध देशों के आंतरिक खोखलेपन में झाँककर देख सकते हैं। यों वहाँ भी भौतिक प्रगति के नगाड़े बज रहे हैं और उपलब्धियों की गर्वोक्तियाँ की जा रही हैं।

यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मान वीसत्ता दो भागों में विभक्त है—एक भौतिक, शरीर पक्ष है; दूसरा आत्मिकचेतना का। भौतिक निर्वाह के लिए सुविधा-साधन चाहिए और आत्मिक संतोष के लिए आदर्शवादी वातावरण। दोनों साधन जहाँ जुटेंगे वहाँ सच्ची प्रगति मानी जा सकेगी और वहीं सुख-शांति की संभावना बढ़ेगी। यहाँ एक बात और भी समझ लेने की है कि चेतना मुख्य है और कलेवर गौण। आत्मिक प्रगति के हित स्वल्प साधनों में भी हँसते-हँसाते ऋषि जीवन जिया जा सकता है, पर प्रचुर साधनों के होते हुए भी आंतरिक विकृतियाँ असुर स्तर के उद्वेग-अनाचारों का सृजन करती रहेंगी।

संपत्ति एक प्रकार की आग है, जिसे अध्यात्मवाद के चिमटे से ही पकड़ा जाना चाहिए। नंगे हाथ अंगार पकड़ लेने की चेष्टा में खतरा ही खतरा है। वासना, तृष्णा से, लोभ-मोह से, संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा हुआ व्यक्ति कितना ही साधन-संपन्न क्यों न हो अपनी उपलब्धियों का सदुपयोग न कर सकेगा। दुरुपयोग के दुष्परिणाम उसे पग-पग पर भुगतने पड़ेंगे। यही हो रहा है। हम अपनी प्रत्येक उलझन, समस्या, कठिनाई के पीछे उसी अनास्था को तांडव नृत्य करते देख सकते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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