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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


राजतंत्र की समर्थसत्ता के माध्यम से समाधान निकालने की बात भी इसी पृष्ठभूमि पर सोची जा सकती है। आज सर्वत्र शासनतंत्र में जनतांत्रिक पद्धति ही कार्य कर रही है। इस स्थिति में जनसाधारण में आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करके ही आदर्श शासन व्यवस्था की स्थापना संभव है। अपने मतदान का मूल्य और महत्त्व समझने वाले नागरिकों का चुना हुआ लोकतंत्र रामराज्य की स्थापना करता है और उसी से सतयुगी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। अधिनायकवाद और राजतंत्र की बात दूसरी थी पर प्रजातंत्र में तो प्रजा ही अपने शासन की व्यवस्था आप करती है। भ्रष्ट प्रलोभनों और उद्देश्यों से प्रेरित होकर मतदान करने वाले वोटर ही वस्तुतः प्रजातंत्र की जड़ खोदते हैं और अवांछनीय शासनतंत्र खड़ा करने के लिए हावी होते हैं।

बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है कि उत्कृष्ट शासन का आधार विवेकवान् नागरिकों के दृष्टिकोण पर निर्भर है। शासन का स्वरूप कितना ही शक्तिशाली हो पर उसका संचालक नियुक्त करने का अधिकार तो मतदाताओं के हाथ में ही सुरक्षित रहता है। स्वस्थ प्रजातंत्र की स्थापना के लिए सर्वमान्य और सर्वोपरि उपाय एक ही है कि प्रजातंत्र के प्रजाजनों को अपने उत्तरदायित्व का भान हो और उसका उपयोग करते समय राष्ट्र को इस पवित्र थाती का पवित्रतम उपयोग करने की बात को ध्यान में रखें।

यह दृष्टि विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक कही जा सकती है। इसी बात को ऐसे भी कह सकते हैं कि स्वच्छ शासन की स्थापना उन प्रजाजनों के लिए ही संभव है, जिन्हें परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने वाले "अध्यात्मवादी" की संज्ञा दी जा सकती है। शासनतंत्र द्वारा राष्ट्रव्यापी-विश्वव्यापी समस्याओं का स्थिर समाधान इस पर निर्भर है कि नागरिकों, सरकारों और मूर्धन्य नेतृत्व द्वारा अध्यात्मवादी आदर्शों को किस सीमा तक अपनाया गया है ?

गहराई से देखा जाए तो ये सामाजिक समस्याएँ स्वतंत्र रूप में कुछ नहीं वैयक्तिक समस्याओं का ही सामूहिक रूप है। असंयम से व्यक्ति दुर्बल और रुग्ण पड़ता है। उसी को सामूहिक रूप से बीमारी, महामारी, अकाल मृत्यु की व्यापक समस्या कहा जा सकता है। मानसिक विकृतियाँ व्यक्तिगत जीवन में मनोविकारों और उद्वेगों के ग्रसित रहने एवं लड़ने-झगड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। यही दुष्प्रवृत्ति सामूहिक जीवन में दो उपद्रवों का रूप धारण करती है और अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए भड़काती है। उपद्रवों और अपराधों की राष्ट्रीय समस्या के प्रकारांतर में व्यक्तियों की दुर्बुद्धि का सामूहिक अभिशाप कहा जा सकता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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