आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
व्यक्ति की दरिद्रता ही देश की गरीबी और व्यक्तिगत अनैतिक धन की आकांक्षा राष्ट्रीय अर्थ-असंतुलन का आधार है। सुसंस्कारी आधार से भटके हुए परिवार-कुत्साओं और कुंठाओं से घिरे रहते हैं। अविवेकपूर्वक बच्चों का अंधाधुंध उत्पादन राष्ट्रीय संकट बनकर खड़ा होता है। विकास के लिए जितने पैर पीछे जाते हैं, उससे ज्यादा नये रोजी-रोटी तथा सुविधा माँगने वाले उत्पन्न हो जाते हैं। विकास की उपलब्धियाँ नई आवश्यकता पूरी करने में सफल नहीं हो पाती फलतः समस्याएँ जहाँ की तहाँ अड़ी बैठी रहती हैं।
व्यक्तिवाद के आधार पर पनपने वाली स्वार्थपरता समूह रूप से असंगठित और सहकारिता की उपेक्षा करने वाले प्रजाजनों की समस्या बनती है। मुनाफाखोरी, कामचोरी, करचोरी, आपाधापी, सार्वजनिक प्रयोजनों की उपेक्षा, सहकारिता में अनुत्साह, वर्ग-स्वार्थ और वर्ग-संघर्ष जैसे आचरणों से ही कोई देश दुर्बल बनता है। इन्हीं को किसी राष्ट्र का आंतरिक खोखलापन कहा जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में आत्मिक दुर्बलता को और सामूहिक जीवन में प्रजाजनों की चारित्रिक कमजोरी का नाम दिया जा सकता है। संक्षेप में व्यक्ति की छोटी दीखने वाली समस्याएँ ही सामूहिक रूप से विशालकाय राष्ट्रीय अथवा सामाजिक समस्याएँ कही जाती हैं। इन्हीं दुर्बलताओं से शिक्षा, संपत्ति आदि साधनों से संपन्न देश आंतरिक दृष्टि से दुर्बल बने रहते हैं। इसके विपरीत उन देशों में आंतरिक दृढ़ता, भावनात्मक एकता, साहसिक, प्रखरता एवं चरित्रनिष्ठा होती है। वे स्वल्प-साधनों के सहारे अपना वर्चस्व सिद्ध करते हैं और न अंर्तद्वंद्वों में टूटते हैं और न बाहरी आक्रमणों से हारते हैं।
जिन सत्प्रवृत्तियों की यहाँ चर्चा की जा रही है, उनको समन्वय की सामाजिक प्रखरता अथवा सामूहिक आध्यात्मिकता कह सकते हैं। कर्तव्य पालन के लिए जागरूक आदर्शों के प्रति निष्ठावान एवं उदार आत्मीयता से प्रेरित होकर सेवा सहायता के लिए आतुर उत्साह को आध्यात्मिकता माना गया है, यही है वह दिव्यक्षमता जिसे आत्मशक्ति कहते हैं। यही व्यक्ति को लौह पुरुष बनाती है और उसी के सहारे राष्ट्रों की सुरक्षा लौह प्राचीरों से भी अधिक सुनिश्चित बनी रहती है। पूर्व वर्णित पाँचों सामाजिक समस्याओं का हल इसी माध्यम से निकाल सकते हैं।
(१) राष्ट्रीय अस्वस्थता की समस्या का समाधान करने के लिए साफ-सफाई, कृमिनाश एवं अस्पतालों का प्रबंध किया जाता है। सरकार अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप कर्मचारियों की संख्या नियत रखती है और सुविधा-साधन जुटाती है, पर वे अस्पताल थोड़े-से ही बीमारों को भर्ती कर सकते हैं। जो इनसे लाभ उठाते हैं, उनकी तुलना में वे कहीं अधिक हैं, जिन्हें यातायात की तथा दूसरी कठिनाइयों के कारण वह सहायता नहीं मिल पाती। जो इनमें चिकित्सा कराते हैं, वे सभी अच्छे भी कहाँ हो पाते हैं। जो अच्छे हो जाएँ इनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें उसी कष्ट की पुनरावृत्ति न होगी अथवा दूसरे नये रंगरूप का रोग फिर न उठ खड़ा होगा?
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?