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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


(२) मानसिक उद्वेगों से पीड़ित व्यक्ति उद्धत आचरण करते हैं। अपना स्तर गिराते हैं और दूसरों को कष्ट देते हैं। कभी-कभी मर्यादाओं के लिए अनास्थावान् बनकर ऐसे लोग मानवी और सामाजिक शील-सदाचार को रोंदते हुए अपराधी बनते, गुंडागर्दी अपनाते, आतंक उत्पन्न करते और चोरी ठगी पर उतारू पाए जाते हैं। नृशंस-क्रूर कर्म करने में भी उन्हें संकोच नहीं होता। इस प्रकार के उद्धत आचरण रोकने के लिए पागलखाने, जेलखाने बनाए गए हैं और उन्हें रोकने पकड़ने की व्यवस्था की गई है। पर देखना यह है कि क्या यह प्रतिबंधात्मक उपाय पर्याप्त है। देखा यही जाता है कि कड़े कानून, कठोर दंड और अपराध सूत्रों की खोजबीन की व्यवस्था रहते हुए भी वे दुष्प्रवृत्तियाँ रुक नहीं रही हैं। आत्महनन से लेकर परपीड़न तक के वर्गों में विभाजित होने वाले अपराध घट नहीं बढ़ ही रहे हैं। दंड भय से बच निकलने की असंख्य तदवीरें सोची और निकाली जाती रहती हैं और छिपे एवं खुले रूप में वह सब होता रहता है, जिसे रोकने के लिए खर्चीले एवं कुशलतापूर्ण उपाय करते जाते हैं।

यहाँ भी दंडनीति एवं रोकथाम के प्रयत्नों का उपहास नहीं उड़ाया जा रहा और न उन्हें अनावश्यक ठहराया जा रहा है। वे प्रयत्न तो होने ही चाहिए वरन् उन्हें अधिक विस्तृत एवं प्रामाणिक किया जाना चाहिए। सोचने की बात इतनी भर है कि क्या मनुष्य की दुर्बुद्धि से उत्पन्न अनाचारों-दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी पकड़ पर्याप्त है ? यह तभी हो सकता है जब हर आदमी के पीछे एक पुलिसमैन लगाया जाए और वह पुलिसमैन भी किसी अन्य लोक का निवासी हो।

अपराध मात्र उतने ही नहीं हैं। जितने न्याय संहिता में दंडनीय ठहराए गए हैं। छोटे और व्यक्तिगत अपराधों पर कानूनी अंकुश नहीं है। नशा पीना, असंयम बरतना, अस्वच्छ रहना, अनुशासनहीनता, अस्त-व्यस्तता, आलस्य-प्रमाद, कटुभाषण, अशिष्ट आचरण, दुर्व्यसन, द्वेष, दुर्भाव, जैसे व्यक्तिगत अवांछनीयताओं पर सरकारी अंकुश नहीं है। पर वे आदतें व्यक्ति और समाज के लिए कम हानिकारक नहीं होतीं। यह अवांछनीयताएँ ही बढ़कर विक्षोभकारी विभीषिकाएँ उत्पन्न करती हैं। ऐसी ही छोटी-छोटी बातें व्यक्ति को गया-गुजरा बनातीं और समाज को खोखला करती हैं। पागल की तोड़-फोड़ हमें चौंकाती है, पर सनकी एवं उद्धत प्रकृति के मनुष्य धीरे-धीरे कितनी विसंगतियाँ खड़ी कर देते हैं, उसे खोजा जाए तो और भी अधिक हानि हुई दृष्टिगोचर होगी। अग्निकांड से शहतीर जल जाने की चर्चा होती है पर घुन द्वारा उसे खोखला करके, धराशाई बनाने देने को सामान्य कहकर टाल दिया जाता है। बड़े अपराधों की भयंकरता सर्वविदित है किंतु छोटे अपराध जिन्हें नैतिक एवं नागरिक मर्यादाओं का उल्लंघन कह सकते हैं, कम भयानक नहीं है। खेत को हिरन चर गये अथवा फसल को कीड़ों ने साफ कर दिया, विश्लेषण की दृष्टि से दो प्रसंग हो सकते हैं, पर हानि की दृष्टि से दोनों को ही समान रूप से हानिकारक ठहराया जायेगा। अवांछनीयता हो या अपराधी दुष्प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति और समाज को असामान्य क्षति उठानी पड़ती है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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