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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


मानवी चिंतन यदि मोड़ा जा सके तो भय, आशंका और अविश्वास के कारण पनपने वाली हिंसा और प्रतिहिंसा की जड़ें कट जाएँगी। आए दिन जो दंगे, फसाद, वर्ग-संघर्ष, क्षेत्रीय युद्ध और विश्व युद्ध के बादल घुमड़ते रहते हैं, उनका दर्शन भी न होगा। घृणा के स्थान पर आत्मीयता, द्वेष के स्थान पर प्रेम की, शोषण के स्थान पर सहयोग की स्थापना की जा सकती है। ऐसा हो सके तो आंतरिक सुव्यवस्था और सीमा सुरक्षा के लिए समस्त संसार में जितनी धन शक्ति खर्च करनी पड़ रही है, उसे शिक्षा, सिंचाई जैसे उपयोगी कार्यों में लगाया जा सकता है। तब अपनी दुनिया में एक भी आदमी अशिक्षित, एक भी विभुक्षित, एक भी रुग्ण और एक भी उद्विग्न दिखाई न पड़ेगा। परस्पर घात-प्रतिघात में लगी हुई शक्ति यदि सृजन सहयोग में लगा सके तो उसका दोहरा लाभ होगा। ध्वंस के दुष्परिणामों से छुटकारा मिलेगा और सृजन की सुखद संभावनाएँ बढ़ेगी।

छोटे-से परिवार में सभी लोग मिल-जुलकर स्नेह सद्भाव पूर्वक गुजारा कर लेते हैं। उसमें बाल, वृद्ध, समर्थ, असमर्थ, विकसित, अविकसित सभी स्तर के लोग रहते हैं, पर किसी को एक-दूसरे से भय नहीं रहता। एक-दूसरे के प्रति संदेह-अविश्वास नहीं करते, दुर्भाव नहीं रखते और दुलार-सहयोग में कमी नहीं देखते। पारस्परिक सद्भाव संपन्नता से घर के हर सदस्य को अपने-अपने ढंग का आनंद और संतोष मिलता है। सभी एक-दूसरे से लाभ उठाते हैं और उस मिली-जुली उदार सहकारिता से पूरा परिवार सुदृढ-सुविकसित बनता चला जाता है। सुसंस्कृत परिवारों में कई प्रकार की कठिनाइयाँ रहते हुए भी स्वगीय वातावरण बना रहता है। उसके सदस्यों को व्यक्तिगत उत्कर्ष का लाभ मिलता है और उन घटकों का सम्मिलित रूप समूचे समाज को समुन्नत बनाने में अप्रत्यक्ष किंतु असाधारण योगदान करता है। विचारणीय यह है कि मानवीय स्वभाव में सहकारिता कूट-कूट कर भरी होने पर भी वह लाभ समाज को क्यों नहीं मिलता, जो सुसंस्कृत परिवारों को मिलता है ? आज समाज के सम्मुख सर्वग्रासी विभीषिकाएँ क्यों प्रस्तुत हैं ? यह प्रश्न भी कम गंभीर और कम विचारणीय नहीं है।

यदि हम तथ्यों की ओर से आँखें फेर न लें तो यह समझा जा सकता है कि हमारे द्वारा विकृत दृष्टिकोण तथा निकृष्ट रीति-नीति अपनाई गई। फलतः अगणित कठिनाइयों की घटा घिर आई। यह समझ लिया जाए तो उसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि प्रस्तुत कष्टकारक उलझनों को सुलझाने के लिए हमारा क्रियाकलाप बदलना चाहिए। यह परिवर्तन उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व के उसी समन्वय से संभव है, जिसे तत्त्वज्ञानियों ने अध्यात्मवाद का नाम दिया है और जिसे बोलचाल की भाषा में आदर्शवाद कहा जा सकता है। मनुष्य को मानवतावादी होना चाहिए। उसे व्यक्तिवादी आपाधापी से विमुख होकर, समूहवादी रीति नीति अपनानी चाहिए। इसी को शास्त्रीय शब्दों में अध्यात्मवाद और राजनैतिक शब्दों में समाजवाद कह सकते हैं। अच्छा है इस तत्त्वदर्शन का नामकरण मानवतावाद किया जाए।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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