आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
ज्ञान-विज्ञान और उद्योग की दिशा में गगनचुंबी प्रगति हो रही है। उसके लिए मूर्धन्य लोग जी तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। इन प्रयासों का प्रतिफल भी सामने हैं। भौतिक प्रगति को एक वरदान कहने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता, किंतु इतना ही तो सब कुछ नहीं है। आवश्यकता उस सद्भावना और दूरदर्शिता की भी है, जिसके सहारे इन उपलब्धियों का सदुपयोग किया जा सके। यही वह मर्म-स्थल है; जहाँ हम चूकते, भटकते और गिरते हैं। फलतः वह वहाँ पहुँचा देगी, जहाँ से सर्वनाश के, महाकाल के कराल दाँतों में पिस जाने और सभ्यता की उपलब्धियों को गँवा बैठने के अतिरिक्त और कुछ हाथ में न रह जायेगा। समझदारी की मांग है कि समय रहते रोग की भयंकरता को समझा जाए। निदान विश्लेषण के सहारे कारणों को ढूंढ निकाला जाए।
कोई कारण नहीं कि मनुष्य मिल-जुलकर न रह सके। ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हल न्याय और औचित्य को अपनाकर, विवेकपूर्वक न खोजा जा सके। देश और देश का लड़ना आवश्यक नहीं। मनुष्य को मनुष्यों से, वर्गों का वर्गों से झगड़ना, मात्र बढ़ी हुई दुर्बुद्धि के कारण ही होता है। इस पर अंकुश लग सकता है। विवेक और सृजन की शक्तियाँ मिल-जुलकर विध्वंसकारियों को मात दे सकती हैं। असुरता इतनी प्रबल नहीं है, जो देवत्व को सर्वदा के लिए हरा सके। सद्भावना के समर्थक बिखरे रहते हैं। यदि एकजुट होकर ममत्व का प्रसार और सृजन का विस्तार करने के लिए कटिबद्ध हो जाए तो मनुष्य जाति का भविष्य उज्ज्वल बनाने वाली विश्वशांति की संभावनाएँ कल्पना न रहकर, कल ही सुनिश्चित यथार्थता बन सकेंगी। तब इसे अध्यात्मवाद की विजय कहा जा सकेगा।
(३) विश्वव्यापी अर्थसंकट वास्तविक नहीं, पूर्णतया कृत्रिम है। धरती माता की उर्वरता इतनी न्यून नहीं है कि वह अपनी संतानों का भरण-पोषण न कर सके। कुछेक लोगों ने संपत्ति को, उपार्जन के साधनों को अपने कब्जे में कर रखा है फलतः सर्वसाधारण को उनसे वंचित रहना पड़ रहा है। अपने देश में भूदान की, भूमि वितरण की दिशा में जो कदम बढ़ाए जा रहे हैं, वे ही सार्वभौम बन सकते हैं। अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि विशालकाय भूखंडों में खाली जमीनें पड़ी हैं और उस पर थोड़े लोगों का आधिपत्य है। यदि मनुष्य मनुष्य के बीच भाईचारा हो और प्रकृति संपदा पर उसके सभी पुत्रों का अधिकार स्वीकार कर लिया जाए तो उस भूमि से संसार की समस्त आबादी को लाभ मिल सकता है। धनाधीशों के हाथ में रुकी हुई पूँजी यदि सार्वजनिक उद्योगों में लग सके तो उससे संसार के हर आदमी को रोजी-रोटी मिल सकती है। जो वृद्धि एवं पूँजी व्यक्तिगत स्वार्थ-साधनों में, सुखोपभोग में लगी है उसी को यदि लोकमंगल के लिए नियोजित किया जा सके तो संसार में अज्ञान और दारिद्रय के टिके रहने का कोई कारण ही शेष न रहे।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?