आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ? अध्यात्मवाद ही क्यों ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए
क्या ऐसा नहीं हो सकता ? निश्चित रूप से हो सकता है। व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की असुरता से यदि संगठित देवत्व लड़ पड़े और आधिपत्य की आपाधापी आत्मीयता के विराट् विस्तार में लग सकें। हर व्यक्ति अपने को समाज का अविच्छिन्न घटक मानकर- सर्वहित में अपना हित अनुभव करने लगे तो उसका चिंतन एवं कर्तृत्व लोकमंगल में लगेगा। साधनों को बाँटकर जो आनंद पाया जाता है, वह कितना बहुमूल्य है, इसे आज तो समझ पाना कठिन हो रहा है। किंतु यदि वह व्यवहार में आने लगे तो उसके सुखद परिणामों को देखकर, हम अपनी ही दुनिया की स्वर्गलोक से तुलना करने लगेंगे।
यह कार्य तब तक अति कठिन बना रहेगा, जब तक इसे कूटनीति एवं अर्थनीति के सहारे हल कर लेने की बात सोची जाती रहेगी। प्रयत्न राजनैतिक भी होते रहें और चेष्टा आर्थिक विकास की भी चलती रहे पर स्थिर समाधान मात्र अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठापना में देखा जाए। मानवी सत्ता जड़ नहीं चेतन है। चेतन की चेतना ही उठाती गिराती है। यदि हमारी आस्थाएँ उपभोग की लिप्सा पर अटकी रहे तो धन-संपदा पर एकाधिकार की, असीम उपभोग और उद्धत अपव्यय की प्रकृति बनी रहेगी। इससे कुछ लोगों की अमीरी रह सकती है कुछ की मनमानी चल सकती है पर सर्व-जनीन अर्थसंकट का अंत न हो सकेगा। उपार्जन वितरण और उपभोग पर यदि अध्यात्मवादी अंकुश रखा जा सके तो ही हम सब दरिद्रता के अभिशाप से स्थायी मुक्ति पा सकते हैं।
(४) बढ़ती हुई जनसंख्या की विश्वव्यापी जनसंख्या के दो पहलू हैं-(i) बढ़ी हुई जनसंख्या की समुचित व्यवस्था तथा (ii) परिवार नियोजन द्वारा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण। इस समस्या के उचित समाधान न खोजे जा सके तो असंतुलन और विक्षोभ चरम सीमा तक पहुँच जायेंगे। ऐसी स्थिति में उसके संतुलन के लिए किसी महायुद्ध अथवा किसी प्राकृतिक प्रकोप द्वारा नर संहार ही एकमात्र हल हो सकता है, जिसकी कल्पना तक से हृदय काँपने लगता है।
उपर्युक्त समस्या के उपर्युक्त हल में आध्यात्मिक प्रक्रिया हर दृष्टि से समर्थ हैं। संसार के विस्तृत भूखंडों और प्राकृतिक-संपदा का उपयोग विवेक सम्मत ढंग से किया जा सके तो वर्तमान जनसंख्या की समुचित व्यवस्था कोई बड़ी बात नहीं है। किंतु इसमें विकसित मानसिक स्थिति और उदार अंतःकरण जैसे आध्यात्मिक गुणों का अभाव ही एकमात्र रुकावट है।
जनसंख्या की वृद्धि के लिए विभिन्न ढंग खोजे और अपनाए जाएँ यह ठीक है, किंतु उसके पीछे सन्निहित मूल मान्यताएँ भी बदलनी चाहिए। जब तक यह मान्यता बनी है कि अपना अर्थात अपने रक्त से पैदा हुआ तब तक अपनत्व के विस्तार और अपने अधिकारों-स्वत्वों की रक्षा के लिए प्रजनन की आवश्यकता अनुभव की जाती रहेगी। किंतु यदि आध्यात्मिक स्तर पर अपनत्व की अनुभूति की जा सके तो मनुष्यमात्र क्या प्राणिमात्र अपने परिवार के रूप में दिखने लगता है। फिर किसी अभाव की पूर्ति अथवा भय आशंका के निवारण के लिए अपनों की संख्या बढ़ाने के प्रयास में निरर्थक प्रजनन सहज ही बंद हो जायेगा। जो कार्य ढेरों शक्ति लगाकर भी असंभव दिखता है, वही आध्यात्मिक दृष्टिकोण विकसित करके सहज ही पूरा किया जा सकता है।
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- अध्यात्मवाद ही क्यों ?