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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


(५) व्यक्तिवादी आपाधापी जितनी बढ़ेगी उतनी ही विषमता बढेगी। एक ओर खड़ड होंगे दूसरी ओर टीले। टीले आकर्षक हो सकते हैं। खड्डों की भयंकरता आतंकित कर सकती है। उपयोगिता तो समतल भूमि की है, उसी में फसल बोई-उगाई जा सकती है और उसी में फल-फूलों से लदे हुए बगीचे लहलहा सकते हैं। अमीरी की चकाचौंध से आँखें हतप्रभ हो सकती हैं। गरीबी देखकर आँखें बरस सकती हैं, पर इससे अवांछनीयता में तो कोई अंतर नहीं आता। हमारे प्रयास समतल भूमि बनाने के लिए होने चाहिए। मानव समाज की प्रगति एकतासमता के आधार पर ही संभव है, अन्यथा एक ओर अहंकार अट्टहास कर रहा होगा। दूसरी ओर पिछड़ेपन के सींकचे में कसी हुई अधिकांश जनता चीत्कार करती हुई मरती-खपती चली जायेगी।

बिलगाव के कारण उत्पन्न होने वाले विग्रहों को यदि समझा जा सके, तो बुद्धिमत्ता इसी में प्रतीत होगी कि संसार को एक परिवार बनाया जाए और हर मनुष्य को उसका सदस्य होने का गौरव अनुभव करने दिया जाए। हममें से हर व्यक्ति अपने को विश्व नागरिक मानें, समस्त संसार को अपना घर और समस्त मनुष्य जाति को एक परिवार के अंतर्गत समेटे, तो वह दिन आ सकता है, जिसमें हम सब देव जीवन का आनंद लेते हुए मानवता को धन्य बना रहे हों और सुख-शांति के सुनहरे स्वप्नों को साकार होते हुए देख रहे हों।

बिलगाव ने धर्मक्षेत्र में अनेकानेक संप्रदाय मत-मतांतर खड़े किए हैं। क्या यह पृथकता आवश्यक है ? यदि एक सूर्य से संसार भर को प्रकाश मिल सकता है तो फिर एक धर्म समस्त मानव जाति के लिए पर्याप्त क्यों नहीं होना चाहिए ? सभी धर्म अपने को ईश्वरकृत कहते हैं और ईश्वर एक है। ऐसी दशा में एक विश्वधर्म अथवा मानव धर्म होने में किसी को क्या आपत्ति होनी चाहिए ? सभी धर्मों में सार तत्त्व है। उस सार की एकता अपना लेने में कोई पूर्वाग्रह या पक्षपात क्यों बाधक होना चाहिए ? प्रथा परंपराएँ तो समयानुसार सदा से बदलती रही हैं और वे कभी भी स्थिर न रह सकेगी। परिस्थितियाँ बदलने के साथ-साथ प्रथा-परंपराओं में परिवर्तन होते रहे हैं और होते रहेंगे। आज की परिस्थितियों के अनुरूप आचार संहिता और व्यवहार-प्रक्रिया बनाई जा सकती है और धर्म की आत्मा को शाश्वत सनातन रूप में ही शिरोधार्य किया जा सकता है। ऐसा धर्म सर्वजनीन होगा और सार्वभौम बनेगा। भारतीय धर्म का निर्माण इसी आदर्श के अनुरूप हुआ। उसमें मानव धर्म कहलाने को विश्व धर्म के रूप में स्वीकार किये जाने की परिपूर्ण पात्रता विद्यमान है। समय ने, विवेक ने, न्याय ने यदि वही कुछ परिवर्तन चाहा तो उसे स्वीकार करने में भी हिचक की आवश्यकता नहीं है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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