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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवाद ही क्यों ?

अध्यात्मवाद ही क्यों ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4165
आईएसबीएन :000

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अध्यात्मवाद ही क्यों किया जाए


विश्व की एक मानव भाषा हो तो वे दीवारें सहज ही टूट जायेंगी, जिन्होंने एक क्षेत्र के मनुष्य को दूसरे क्षेत्र वालों के साथ विचार-विनिमय करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। भाषा की भिन्नता के कारण दो क्षेत्रों के निवासी गँगे, बहरे की तरह मात्र इशारों से ही थोड़ा बहुत काम चला सकते हैं। मद्रासी और बंगाली में, मराठी और पंजाबी के बीच भाषा की दीवार मुँह पर पट्टी बाँधने जैसी रोक लगा देती है। अफ्रीकी और रूसी अपनी-अपनी भाषा में एक-दूसरे से बात करने लगें तो वह उच्चारण निरर्थक ही सिद्ध होगा। दुभाषियों के सहारे काम चलते हैं अथवा किसी जानी पहचानी भाषा का सहारा लेना पड़ता है। यदि यह और न रहे, सर्वत्र एक भाषा बोली जाने लगे तो सामान्य लोक व्यवहार का वार्तालाप ही नहीं, गंभीर ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान भी अति सरल हो सकता है। एक लिपि में लिखी जाने वाली एक विश्व भाषा बन सके तो प्रेस और प्रकाशन उद्योग में आशातीत क्रांति हो सकती है। फिर क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशन की कठिनाई, महत्त्वपूर्ण विचारधारा का एक सीमित क्षेत्र में अवरुद्ध रहने का व्यवधान सहज ही मिट सकता है और देखते-देखते मानवी ज्ञान की परिधि गगनचुंबी हो सकती है।

छुटपुट पृथक्-पृथक् राष्ट्रों को सत्ता एक विश्व राष्ट्र में विलीन हो सकती है। जिस प्रकार एक देश के कई प्रांत, कई जिले होते हैं, उसी प्रकार एक विश्व राष्ट्र के अंतर्गत समस्त देश बने रहें और उनकी सीमा रेखाएँ भौगोलिक आधार पर नए सिरे से निर्धारित कर ली जाएँ, तो उसमें किसका क्या हर्ज होगा ? विश्व राष्ट्र की फौज ही सर्वत्र सुरक्षा व्यवस्था की उत्तरदायी होगी और देश-विदेशों के बीच आए दिन होते रहने वाले युद्धों के लिए कहीं कोई कारण शेष नहीं रहेगा। भूमि पर, प्राकृतिक संपदा पर किसी क्षेत्र के निवासी अपना अधिकार न रख सकेंगे। तब ऐसी दशा में किसी क्षेत्र को अमीर, किसी को गरीब, किसी को अपच से व किसी को भुखमरी से मरना नहीं पड़ेगा। जलमार्ग, थलमार्ग, नभमार्ग से सर्वत्र सबको जाने की सुविधा हो। जनसंख्या के सुविधा-साधनों के अनुरूप बसाहट कर दी जाए। खनिज तथा दूसरे प्रकृति साधनों का उपयोग सभी लोगों के लिए सुलभ बना जाए। हर किसी को श्रम करना पड़े और हर किसी को उत्पादन में हिस्सा मिले तो फिर विषमता कहीं रहेगी ही नहीं। तब विद्वेष और विद्रोह के कारण ही बच नहीं रहेंगे। युद्ध कौन करेगा ? किससे करेगा और किसलिए करेगा ? आज की सर्वनाशी युद्ध विभीषिका में अणु अस्त्रों का समावेश हो जाने से मानवी अस्तित्व के लिए संकट खड़ा हो गया है। इसकी सामयिक रोकथाम जिस किसी भी उपाय से संभव हो, की जानी चाहिए। पर इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अंतिम विश्व शांति की स्थापना, युद्धों की पूर्णतया समाप्ति विश्व राष्ट्र का निर्माण होने से ही संभव होगा।

एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा, एक राष्ट्र की आवश्यकता पर जितनी गंभीरता से विचार किया जायेगा उतनी ही उसकी उपयोगिता सिद्ध होती चली जायेगी। यह अध्यात्म का प्रतिपादन है। अद्वैत सिद्धांत में सर्वत्र एक ही आत्मा का अस्तित्व माना गया है। सबमें एक ही आलोक के प्रतिबिंब जगमगा रहे हैं। हम सब मणि-माणिकों की तरह पृथक् होते हुए भी एक ही सूत्र में बँधे हुए हैं। हम सबके हैं, सब हमारे हैं। यह एकात्म भाव ही आत्मविश्वास की स्थापना है। सीमित अहंता को क्षुद्रता का चिह्न माना गया है। बिलगाव की संकीर्ण स्वार्थपरता को अध्यात्म तत्त्वज्ञान में पग-पग पर भर्त्सना और उसके असीम दुष्परिणामों का विस्तारपूर्वक दिग्दर्शन कराया गया है। संकीर्णता के सीमाबंधन ही असंख्य समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। उसी के कारण मानवी गरिमा का ह्रास होता है और अनेकानेक संकट खड़े होते हैं। स्नेह-सौजन्य से, एकता और समानता की नीति अपनाई जा सके तो वर्तमान साधनों से ही अपने संसार में, अपने युग में, सुख-संपदा के बाहुल्य और आनंद से सर्वत्र हर्षोल्लास बिखरता देखा जा सकता है।

कमी साधनों की नहीं, समस्या संकटों की नहीं, कठिनाई एक ही है कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण की उपेक्षा की गई और उसका उपहास बनाया गया। यों अभी भी अध्यात्म की चर्चा खूब होती है और उसके नाम पर आडंबर भी बहुत बनते हैं, पर उस रीति-नीति को व्यावहारिक जीवन में उतारने का प्रयास नहीं किया जाता। अध्यात्म को व्याख्याओं में धूमिल कर दिया गया है, फलतः वह भ्रांतियों का केंद्र बनकर रह गयी है। आवश्यकता इस बात की भी है कि अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप से जन साधारण को परिचित कराया जाए।

यह तथ्य हममें से प्रत्येक को हृदयंगम करना चाहिए कि उत्कृष्ट चिंतन के आधार पर परिष्कृत व्यक्तित्व बनाने वाले दृष्टिकोण का नाम अध्यात्म का तत्त्वदर्शन है। आदर्शवादी गतिविधियों को कार्यान्वित करने की प्रखर कार्यपद्धति को वैयक्तिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली उदात्त कर्तव्यपरायणता को अध्यात्म का व्यवहार पक्ष कह सकते हैं। यही वह आधार है जिसे अपनाकर, व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का हल पाया जा सकता है और समूची मानव जाति को स्थायी सुख-शांति से लाभान्वित किया जा सकता है।

कहा जा चुका है कि संसार के सामने विशालकाय समस्याएँ, अपराध, युद्ध, अभाव, अशिक्षा आदि की है। इन्हें परिस्थितिवश उत्पन्न हुआ माना जाता है, जबकि वे विकृत मनःस्थिति की उपज हैं। सुधार उद्गगम केंद्र का किया जाना चाहिए। समस्याओं की जड़ काटी जानी चाहिए। मानवी मस्तिष्क यदि दुर्बुद्धिग्रस्त रहेगा और दुष्प्रवृत्तियों से हमारी कार्यपद्धति ग्रसित रहेगी, तो उसकी प्रतिक्रिया असंख्य समस्याओं के रूप में उसी प्रकार बनी रहेगी जैसी कि आज है। बाह्य उपचारों से क्षणिक सहायता तो मिल सकती है, पर विग्रहों का स्थायी समाधान नहीं निकल सकेगा। युद्ध समाप्त करने की दुहाई देकर प्रथम विश्वयुद्ध लड़ा गया था, उसके समाप्त होते-होते दूसरा विश्व युद्ध लड़ा गया उसका नारा भी यही था। उसके समाप्त होते-होते तीसरे महायुद्ध की तैयारियाँ जोरों से चल पड़ी हैं। कहा जा रहा है कि उसके बाद युद्ध न होंगे। यह कथन बटैंड रसल के शब्दों में इस आशय का हो सकता है कि, तीसरे युद्ध के बाद जो मनुष्य बचे रहेंगे, वे शस्त्रों से युद्ध लड़ सकने की स्थिति में ही नहीं रहेंगे। चौथा युद्ध लड़ना पड़ा तो वह ईंट-पत्थर फेंककर ही लड़ा जा सकेगा।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्मवाद ही क्यों ?

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