आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
बालक जान रेरी उन दिनों सिर्फ १२ वर्ष का था। उसने सारी स्थिति समझी और सीधा उस जंगल में चला गया जहाँ घोड़ा चौकड़ियाँ भर रहा था। लोगों को अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ जब उन्होंने देखा कि लड़का बिना लगाम और जीन के उस घोड़े की पीठ पर बैठा हुआ घर आ रहा है। पूछने पर उसने बताया यह कोई जादू नहीं है। मुहब्बत यदि गहरी और सच्ची हो तो किसी को भी यहाँ तक कि ख्वार पशुओं को भी वशवर्ती बनाया जा सकता है।
बालक की ख्याति घोड़ों के शिक्षक के रूप में फैल गई। लोग अपने-अपने उदंड घोड़े ठीक कराने उसके पास लाने लगे। सिलसिला घोड़ों का चल पड़ा तो उसने वही काम हाथ में ले लिया। कई वर्ष तक उसे यही काम करना पड़ा। बीस वर्ष का होते-होते वह सरकस के लिए घोड़े सधाने की कला में निष्णांत हो गया। उसने उन्हें ऐसे-ऐसे विचित्र खेल सिखाए जो उससे पहले सरकसों में कहीं भी नहीं दिखाए जाते थे। इससे पहले घोड़े सधाने की कला उन्हें पीटने, भूखा रखने, पैरों में कीलें ठोंकने जैसे निर्दय तरीकों पर अवलंबित थी। रेरी ने सिद्ध किया कि उससे कहीं अधिक कारगर प्यार-मुहब्बत का तरीका है। वह कहता था कि यदि जानवरों को प्यार मिले तो न केवल पालतू प्रकृति के पशु वरन् नितांत जंगली और मनुष्य से सर्वथा अपरिचित जानवर भी वशवर्ती, सहयोगी एवं सरल प्रकृति के बन सकते हैं। यह उसने सिर्फ कहा ही नहीं वरन् करके भी दिखाया।
जब घोड़े ही उसके पल्ले बँधने लगे तो उसने उनकी आदतें समझने के लिए कई महीने जंगी घोड़ों के साथ रहने की व्यवस्था बनाई। उनकी रुचि और प्रकृति को समझा। उन्हें बदलने एवं सधाने के आधार ढूँढ़े और अपने विषय में पारंगत हो गया। रेरी ने चुनौती दी कि कोई कितना ही भयंकर घोड़ा क्यों न हो वह उसे कुछ ही दिनों में, कुछ ही घंटों में वशवर्ती बना सकता है। पत्रों में छपी इस चुनौती ने घोड़े वालों में भारी दिलचस्पी पैदा कर दी। अब से लगभग १२५ वर्ष पूर्व घोड़े ही युद्ध और यातायात के प्रमुख माध्यम थे। मोटरें तो तब थी नहीं। बड़े लोग घोड़े ही पालते थे, कृषि और वाहन प्रयोजनों के लिए उन्हें ही काम में लाया जाता था। अस्तु बड़े किंतु बिगड़े घोड़ों की संख्या भी कम नहीं थी। वे मालिकों के लिए सिर दर्द बने हुए थे। कीमती होने के कारण उन्हें न मारा जा सकता था. और न भगाया जा सकता था। खरीदता उन्हें कोई था नहीं। उन पर जो खर्च पड़ता था वह तो बेकार था ही। साथ ही जान जोखिम की आशंका भी बनी रहती थी। ऐसे घोड़े आए दिन रेरी के पास आते और उन्हें अनुशासित बना दिया जाता।
छपी चुनौती से प्रभावित होकर लार्ड डारचेस्टर ने रेरी का द्वार खटखटाया। उन्होंने १५ हजार डालर में एक बलिष्ठ घोड़ा-घुड़दौड़ में बाजी जीतने की दृष्टि से खरीदा था। कुछ दिन तक तो वह ठीक रहा पर पीछे वह बेकाबू हो गया। लोहे की जंजीरें तोड़ देता, जंगले उखाड़ देता और कभी-कभी गुस्से से अपनी ही अगली टाँगें काट लेता। उसके लिए ईंटों की काल कोठरी बनानी पड़ी। उसी में चारा-दाना दिया जाता। पूरे चार वर्ष उसे उसी कोठरी में बंद रहते हो गए थे। ढेरों खर्चीले उपाय कर लिए गए थे पर वह किसी तरह काबू में नहीं आया। उसे अंधा बनाने की बात सोची जा रही थी ताकि कम खतरनाक हो जाए और उसे दौड़ाने में काम लाया जा सके। नाम था उसका क्रूजर।
लार्ड डारचेस्टर ने उस घोड़े को ठीक करने की चुनौती दी। रेरी ने उसे स्वीकार कर लिया। घोड़ा लंदन तो आ नहीं सकता इसलिए उसे ही यूरेल्स ग्रीन पहुँचना पड़ा। उस समय घोड़ा अत्यंत क्रुद्ध था। कोठरी के दरवाजे तोड़ने में लगा हुआ था। उसकी भयंकर स्थिति देखकर लोगों ने समझाया कि वह इसे सुधारने के झंझट में न पड़ें और वापस चला जाए। पर रेरी अपनी बात पर अड़ा ही रहा। उसे विश्वास था कि वह किसी भी भयंकर जानवर को, इस घोड़े को भी अनुशासित कर सकता है।
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