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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
(२) सूर्यवेधन प्राणायाम- ब्रह्म-प्राण को आत्म-प्राण के साथ संयुक्त करने के लिए उच्चस्तरीय प्राणयोग की आवश्यकता पड़ती है। सूर्यवघन इसी स्तर का प्राणायाम है। इसमें ध्यान-धारणा को और भी अधिक गहरा बनाया जाता है एवं प्राण ऊर्जा को सांस से खींचकर इसे सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कराया जाता है। पद्धति इस प्रकार है-
पूर्वाभिमुख, सरल पद्मासन, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र खुले, घुटने पर दोनों हाथ। यह ध्यान-मुद्रा है। बायें हाथ को मोड़ें, उसकी हथेली पर दायें हाथ की कोहनी रखकर, मध्यमा-अनामिका अँगुलियों से बायें नथुने को बन्द कर दाहिने नथुने से गहरी साँस खींचें। साँस इतनी गहरी हो कि पेट फूल जाए, वह फेंफड़े तक सीमित न रहे। ध्यान करें कि प्रकाश प्राण से मिलकर दायें नासिका छिद्र से पिंगला नाड़ी में होकर अपने सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रहा है। साँस रोकें व दोनों नथुने बन्द कर यह ध्यान करें कि नाभिचक्र में प्राण द्वारा एकत्रित यह तेजपुञ्ज यहाँ अवस्थित चिरकाल से पड़े सूर्य-चक्र को प्रकाशवान् कर रहा है। यह निरन्तर प्रकाशवान हो रहा है। अब बायें नथुने को खोल दें और ध्यान करें कि सूर्यचक्र को सतत घेरे रहने वाले, धुंधला प्रकाश बनाने वाले कल्मष छोड़ी हुई साँस के साथ बाहर निकल रहे है। पीत वर्ण का मलिन प्रकाश इड़ा नाड़ी से बाहर निकल रहा है।
अब दोनों नथुने फिर बन्द कर फेंफड़ों को बिना साँस के खाली रखें व भावना करें कि नाभिचक्र में एकत्रित प्राण तेज पुंज की तरह, अग्नि शिखा की तरह ऊपर उठ रहा है, सुषुम्ना नाड़ी से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण तेज सारे अन्तः प्रदेश को प्रकाशवान् बना रहा है। सर्वत्र तेजस्विता व्याप्त हो रही है। यही प्रक्रिया फिर बायें नथुने से साँस खींचकर व रोककर दायें से बाहर फेंकते हुए दुहरायें व भावना उसी प्रकार करें जैसा ऊपर वर्णित है। यह पूरी प्रक्रिया एक लोम-विलोम सूर्यवधन प्राणायाम की हुई।
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