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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
(४) कुण्डलिनी योग- शक्तिचालिनी मुद्रा- ब्रह्मशक्ति का केन्द्र है। ब्रह्मलोक और जीवशक्ति का आधार है-भूलोक। दोनों ही काया में सूक्ष्म रूप से विराजमान है। भूलोक-जीव-संस्थान का मूलाधार चक्र है, मूलाधार जननेन्द्रियों का मूल, मल-मूत्र छिद्रों का मध्य भाग। इसी स्थान की हलचलों के कारण प्राणी जन्म लेते हैंं। कुण्डलिनी शक्ति उसी केन्द्र में मुँह नीचा किये मूर्छित अवस्था में पड़ी रहती है। विवेकवान उसे जगाकर अनेक गुनी प्रखर बनाते हैंं और जागरण की इस प्रखरता का उपभोग व्यक्तित्व को प्रतिभा सम्पन्न बनाने, उच्चस्तरीय कार्य सम्पादन करने में प्रयुक्त करते हैंं।
कुण्डलिनी जागरण की इस साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने, उठाने के लिए ध्यान-धारणा के साथ जिन यौगिक क्रियाओं का सहारा लिया जाता है, उनमें एक मुद्रा व एक बंध का युग्म है। शक्तिचालिनी मुद्रा व उड्डियान बन्ध अधोमुखी शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए प्रयुक्त होते हैंं। शक्तिचालिनी मुद्रा बजासन या सुखासन में बैठकर की जाती है। इसमें मल एवं मूत्र संस्थान को संकुचित करके उन्हें ऊपर की ओर खींचा जाता है। खिंचाव पूरा हो जाने पर उसे शिथिल कर देते हैं। प्रारम्भिक स्थिति में दो मिनट व धीरे-धीरे पाँच मिनट तक बढ़ाते हुए यही क्रिया बार-बार दुहरायें ! उड्डियान बन्ध में स्थित आँतों को ऊपर की ओर खींचा जाता है। यह क्रिया स्वतः शक्ति-चालिनी मुद्रा के साथ धीरे-धीरे होने लगती है। पेट को जितना ऊपर खींचा जा सके, खींचकर पीछे पीठ से चिपका देते हैं। उड्डियान का अर्थ है-उड़ना। कुण्डलिनी जागृत करने, चित्तवृत्ति को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी करने की यह पहली सीढ़ी है। इससे सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है, मूलाधार चक्र में चेतना आती है। इन दोनों क्रियाओं के द्वारा समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर ऐसा सूक्ष्म विद्युत्तीय प्रभाव पड़ता है जिससे इस शक्तिमोत के जागरण व मेरुदण्ड मार्ग से ऊर्ध्वगमन के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं।
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