|
आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
237 पाठक हैं |
||||||
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
(६) लययोग- खेचरी मुद्रा- शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीर सागर माना गया है। मनुष्य सत्ता और ब्रह्मलोक व्यापी समष्टि सत्ता का आदान-प्रदान ब्रह्मरन्ध्र मार्ग से होता है। यह मस्तिष्क का मध्य बिन्दु है, जीवसत्ता का नाभिक है, यही सहस्रार कमल है। मस्तिष्क मज्जा रूपी क्षीर सागर में विराजमान विष्ण-सत्ता के सान्निध्य और अनग्रह का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा की साधना की जाती है। ध्यान मुद्रा में शांत चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सहलाने जैसे मन्द-मन्द स्पन्दन किये जाते हैंं। इस उत्तेजना में सहमदल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति में बदलती है। बन्द छिद्र खुलते हैंं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वान भाग के मध्य से अन्तःचेतना को अनुभव होता है। यही खेचरी मुद्रा है।
तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जीभ के अगले भाग से उसे सहलाना-सोमपान, पयपान कहलाता है। इस क्रिया से आध्यात्मिक आनन्द की, उल्लास की अनुभूति होती है। यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है। देवलोक से सोमरस की वर्षा होती है। अमृत कलश से प्राप्त अनुदान आत्मा को अमरता की अनुभूति देते हैंं।
|
|||||








