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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


(२) मट्ठा एवं दही कल्प

दूध की तुलना में दही हल्का होता है। गर्मी के मौसम में दूध के स्थान पर दही-मठे का प्रयोग अधिक श्रेष्ठ माना जाता है। दुग्ध कल्प की अवधि में यदि पतले दस्त होने लगे अथवा संग्रहणी या अमीविएसिस की पुरानी बीमारी से साधक ग्रस्त हो तो दही का प्रयोग करना होता है। दमा के रोगी को मीठा दही तभी अनुकूल पड़ता है, जब दम शमन का आयुर्वेदोपचार कर लिया गया हो एवं वह औषधि से नियंत्रण में हो। दही का प्रयोग करने से पूर्व उसे एक छोटी मथनी से मथ देनी चाहिए ताकि उसके सब कण टूट जायें व वह मट्ठा का रूप ले ले। मट्ठा दही से भी अधिक सुपाच्य है। मक्खन निकालकर दही में आधे अनुपात में जल मिलाने पर छाछ बन जाती है। छाछ में शुद्धि एवं पोषण दोनों ही कार्य करने वाले तत्व होते हैंं। आमाशय एवं ऊर्ध्वगामी पाचन संस्थान को इसे पचाने के लिए विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। शरीर के सहजीवी एन्जाइम उत्पादक जीवाणु फ्लोरा जैसे ही जीवाणु इसमें भी होते हैंं। ये रोगोत्पादक जीवाणुओं से आँत्रों की नित्य शुद्धि करते रहते हैंं।

आयुर्वेद के अनुसार मट्ठा (तक) अग्नि दीपक, कफ-वात शामक, उदर-शोथ नाशक, स्वादिष्ट व खट्टा होता है। यह संग्रहणी, बवासीर, पेट के रोग, मूत्रावरोध, अरुचि, वमन, वातशूल आदि को दूर करता है। विद्वानों के अनुसार मट्ठा को तुरन्त बनाकर उपयोग में लिया जाय। ऐसा तक्र ही सच्चा लाभ पहुँचाता है। मदनपाल निघण्टु के अनुसार शीतकाल में संग्रहणी रोग में, अर्श, कफ रोग, वात-व्याधि, स्रोतों के बन्द होने पर तथा मन्दाग्नि में तक्र अमृत समान है।

भाव प्रकाश निघण्टुकार ने तो तक्र की तुलना देवताओं को उपलब्ध अमृत से की है और इसे भूतल पर मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य सम्वर्धन हेतु विधाता की अनुपम भेंट कहा है।

मट्ठा यदि मलाई सहित दही को मथकर बनाया जाय व उसमें पानी न डाला जाय तो घोल, मलाई निकालकर मथ लिया जाने पर मथित, तीन भाग दही व एक भाग पानी मिलाकर मथा जाने पर तक्र तथा अधिक भाग पानी व कुल भाग मक्खन रहित दही होने पर छाछ कहलाता है। आयुर्वेद ने तक्र को ही चिकित्सा हेतु श्रेष्ठ माना है। इसका प्रयोग वात रोग में संघव लवण, सोंठ, भुना जीरा डालकर किया जाता है। पित्त रोग में शक्कर मिलाकर मीटा तक्र पीना श्रेष्ठ मानते हैंं और कफ रोग में त्रिकुटाचूर्ण (साँठ, पीपल, कालीमिर्च समभाग) के साथ।

रासायनिक दृष्टि से दही में ८९१ प्रतिशत आर्द्रता, ३१ ग्राम प्रतिशत प्रोटीन्स, ४ ग्राम प्रतिशत वसा, ०८ ग्राम प्रतिशत खनिज लवण, ३ ग्राम प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 2 किलो कैलोरी प्रति १०० ग्राम, १४९ मिलीग्राम प्रतिशत कैल्शियम, ९३ मिलीग्राम प्रतिशत फास्फोरस, १०२ माइकोग्राम प्रतिशत विटामिन-ए तथा क्रमशः ०.०५ ०.१६, ०.१, ०.१ मिलीग्राम प्रतिशत की मात्रा में थायमिन, रिबोफ्लेबिन, नियासिन एवं विटामिन 'सी' होते हैंं। छाछ में आर्द्रता बढ़कर ९७.५ प्रतिशत हो जाती है। शेष पोषक तत्वों की मात्रा में प्रति १00 ग्राम कमी तो हो जाती है पर वे अधिक पाचक, अवशोषण योग्य बन जाते हैंं। तक्र में लैक्टिक एसिड एवं सिंट्रिक एसिड अतिरिक्त मात्रा में होते हैंं जिनका मूल कार्य है रस ग्रन्थियों को उत्तेजित करना। रक्त शुद्धि, रक्ताभिसरण प्रक्रिया को बढ़ाकर विकारों को मूत्र मार्ग से निकालने में सभी घटकों की प्रमुख भूमिका रहती है।

छाछ-मट्ठा का प्रयोग वहीं ठीक बैठता है जहाँ आँतों के स्वभाव एवं उनकी क्रिया पद्धति के अनुकूल इनकी आवश्यकता समझी जाय। इनमें संकोचन गुण है। अतः कोष्ठबद्धता, (कांस्टीपेशन-कब्ज) प्लीहा वृद्धि के रोगियों को यह अनुकूल नहीं बैठता। इसीलिए कल्प का निर्धारण स्वयं न कर उचित मार्गदर्शक द्वारा ही किया जाना चाहिए।

जिसके लिए अनुकूल माना जाए, उसे अन्न एवं जल बन्द कर एक दिन उपवास करा के तक्र या मट्ठा कल्प करना चाहिए। मट्ठा ताजा ही बनाया जाय एवं गाय के दही का प्रयोग हो। मट्ठे में स्वभावतः पानी इतना होता है कि उसे अलग से लेने की आवश्यकता नहीं होती। पहले व दूसरे दिन ३-४ बार में आधा-आधा लिटर तक का सेवन किया जाय। पहले कुछ दिनों में जल की आवश्यकता हो तो ले भी सकते हैंं पर यथा सम्भव कम लें। जठराग्नि के बलानुसार तक्र की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जा सकती है। फिर भी कल्प की मर्यादाओं को ध्यान में रखकर पूरी अवधि में थोड़ा कम ही लिया जाय तो शोधन-तप एवं सजन योग दोनों ही प्रयोजन पूरे हो सकते हैंं। जैसे ही कल्प समाप्त करते हैं, पथ्य क्रम धीरे-धीरे आरम्भ हो। नियमित आहार पर आने के लिए एक माह की कल्पावधि वाले साधक को न्यूनतम एक सप्ताह तो लेना ही चाहिए।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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