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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
(३) अन्नाहार कल्प -
कल्प साधना के प्रथम वर्ष में शुरूआत अमृताशन-दलिया कल्प से की गयी है जिसे वाष्प द्वारा पकाया जाता है और १ माह की अवधि तक बिना स्वाद को अधिक महत्व दिये सतत् लिया जाता है। सात्विक अन्न की महत्ता अपने स्थान पर है। स्वास्थ्यवर्धक पक्ष पर अधिक विस्तृत चर्चा न भी की जाय तब भी इस कल्प प्रक्रिया से सम्भावित शरीरगत, मनोगत परिवर्तनों की चर्चा तो अभीष्ट हो जाती है। एक ही आहार को समग्र मानते हुए शास्त्रों ने उन्हें ग्रहण करने का विधान बनाया है। सच तो यह है.कि शरीर के अपने पाचक रस विभिन्न खाद्यान्नों को अपने उपयुक्त परिवर्तित-परिवर्धित करते रहते हैंं। दुम्बा मेढ़ा अपने शरीर की चर्बी का सर्वाधिक अंश मात्र घास से प्राप्त कर लेता है। शरीर के पाचक रस सत् जैसी स्वत्व रहित वस्तु को भी उलट-पुलट कर शरीर के लिए उपयुक्त क्षमता वाले रक्त में बदल देते हैंं। एकाहार में जो मन संयम जुड़ा है उससे कल्प का प्रयोजन पूरा हो जाता है। शरीर में कोलेस्टेरॉल का घटना, आँतों का सबल होना, कब्ज-आँव की आदत जन्य कष्टकारी प्रतिक्रिया से पूर्णतः मुक्ति, विकारों का निवारण तथा भूख का खुलने लगना जैसे फलदायी परिणाम आहार चिकित्सा के गिनाये जा सकते हैंं, जिनका शरीरगत स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है। मनोबल में वृद्धि, तनाव का शमन तथा आत्म सन्तोष ऐसी उपलब्धियाँ हैं जिन्हें आहार कल्प करने वाला साधक शीघ्र ही अनुभव करने लगता है। यह तो मात्र मन है जो प्रारम्भ में अड़चन डालता एवं स्वादेन्द्रियों के लिए अभ्यस्त आहार को ग्रहण करने के लिए ठेलता रहता है। यह भी एक परीक्षा है। जो साधक अन्नाहार की एक माह कल्प वाली परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैंं, वे आगे और भी बड़ी तपश्चर्या करने के पात्र बन जाते हैंं। मात्र एक ही औषधि , दुग्ध अथवा मट्ठे पर रहना तब अधिक अवधि के लिए भी सम्भव है। इस आहार कल्प को कड़ी कल्प चिकित्सा का प्रिमेडीकल टेस्ट माना जा सकता है।
गेहूँ, चावल-मूंग के सम्मिश्रण से बनी खिचड़ी (अमृताशन), गेहूँ का दलिया, दाल-चावल एवं दलिया-दाल का सम्मिश्रण अथवा हविष्यान्न (गेहूँ, जौ, तिल) में से किसी एक को कल्प साधना हेतु चुना जा सकता है। गेहूँ, मक्का, मूंगफली, बाजरा, चावल, चना इत्यादि से किसी एक खाद्यान्न को कल्प प्रयोग हेतु एकाकी रूप से साधक वाष्प सिद्ध कर अथवा अंकुरित कर लेते रह सकते हैंं। प्रत्येक अपने आप में सम्पूर्ण है। प्रारम्भ में मन उचटने पर भी कुछ ही दिनों में यह आहार ऐसा सुस्वादु लगने लगता है कि स्वाद व पोषण दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हुए शोधन-कल्प की प्रक्रिया चल पड़ती है। ध्यान यही रखना है कि उनमें से किसी को भी क्षुधा तृप्ति की सीमातक न ग्रहण कर उतना ही लिया जाय जितना निर्धारण प्रारम्भ में किया गया। यह ग्राह्य-पाचन योग्य मात्रा से कम ही हो ताकि उपवास का प्रयोजन भी पूरा हो तथा कल्प के साथ जुड़ी तप-तितिक्षा भी सम्पन्न होती चले। शांतिकुञ्ज में अभी तो दाल-दलिया, अमृताशन, मुंग आदि का क्रम चलता है लेकिन बाद में भिन्नताएँ साधक की प्रकृति के अनुसार बढ़ाई जाती रहेंगी।
जिस प्रकार कच्चा भोजन स्वाभाविक आहार माना जाता है, उसी प्रकार वाष्प सिद्ध अन्नाहार एक प्रकार का विज्ञान सम्मत, पुष्टिवर्धक, स्वाभाविक, समग्र भोजन कहा जा सकता है। बिना पीसे कच्चा गेहूँ, चावल या कोई अन्य खाद्यान्न तो कोई भी खा नहीं सकता है। प्राकृतिक आहार और उसकी पाक पद्धति में समन्वय बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि बिना आवश्यक तत्वों में कोई परिवर्तन लाये उन्हें भाप से ही पकाकर स्वाभाविक रूप में ही उन्हें ग्रहण किया जाय। अनाजों में शक्ति और स्निग्धता, प्राण और लावण्य, उसमें विद्यमान जल तत्व के कारण होते हैंं। यदि उन्हें सुखाकर समाप्त कर दिया गया तो प्राण विहीन अन्न किस काम का। स्टार्च-विटामिन्स आदि के बारे में भी यही बात लागू होती है। वाष्प प्रक्रिया से इनकी हानि न्यूनतम होती है तथा ये अवशोषण योग्य रूप में (एसीमिलेबल) में बदल जाते हैं। अंकुरित रूप में अथवा भाप से पकाकर लेने पर, अच्छी तरह चबाकर, रस एन्जाइमों से अन्न के प्राण तत्वों का संयोग करा देने पर ही आहार ग्रहण करने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। किसी भी रूप में पेट में तो भोजन जाना ही चाहिए, इससे भर काम नहीं चलता। स्वास्थ्य सुधार, आमाशय-आँत संस्थान की क्षमता-वृद्धि के अतिरिक्त मनोविकारों के शमन तथा मनोबल वृद्धि हेतु भी ऐसे आहार का कुछ दिन लेते रहना अनिवार्य है। इससे जुड़ा उपवास शोधन तो करना ही है।
वाष्प सिद्ध प्रक्रिया द्वारा वस्तुतः हमें पाक विद्या में क्रांति ही लानी है। प्रेशर कुकर, स्टीम कुकर आदि इन दिनों खूब प्रचलित है। पर उनका प्रयोजन जिसलिये था, उस कार्य में उनका उपयोग नहीं हो पा रहा। समय, श्रम, ईधन की बचत तथा आहार की गुणवत्ता वृद्धि का यह सर्वश्रेष्ठ साधन माना जा सकता है। पूर्णान्न खिचड़ी, दो अन्न का अमृताशन, सादी खिचड़ी एवं दलिया तो साधारण-सा परिवर्तन मात्र ढरें में चाहते हैंं। उनमें अनाज (कार्बोहाइड्रेट), मँग (प्रोटीन), मूंगफली (फैट या वसा) इत्योदि सभी होता है। क्षार-लवण, विटामिन्स (पानी में घुलनशीन) जोड़ना हो तो हरी तरकारी भी डाल सकते हैंं। पूर्णान्न खिचड़ी में ज्वार, बाजरा या गेहूँ में से कोई एक अनाज १०० ग्राम (अंकुरित), अंकुरित मूंग 0 ग्राम, अंकुरित मूंगफली १० ग्राम, १० ग्राम नारियल, लगभग पाव भर पानी तथा मात्र १ चम्मच सैंधव नमक डाला जाता है। थोड़ी सी हल्दी और डाली जा सकती है। इसमें सारे पोषक तत्व विद्यमान हैं। सादी खिचड़ी में 900 ग्राम चावल, ५० ग्राम अंकुरित मूंग, १० ग्राम अंकुरित मूंगफली, लगभग १२ किलो पानी, नमक २।। ग्राम डालते हैंं। पाचन प्रक्रिया को फिर से अपने सही रूप में लाने के लिए यह एक सर्वश्रेष्ठ आहार है। दलिया खाना हो तो मोटा दला हुआ अन्न ५० ग्राम, १५० ग्राम पानी, २ ग्राम गुड़ की राव या शर्करा एवं ५ ग्राम नमक डालकर सुपाच्य सुस्वादु बनाया जा सकता है। इस आहार में पोषण के सभी तत्व विद्यमान है। रोटी की अपेक्षा यह अधिक स्वादिष्ट व सुपाच्य है। अमृताशन में समानुपात में दाल व चावल लेकर नाममात्र का सैंधव लवण तथा हल्दी डाली जाती है। अपनी आवश्यकतानुसार मात्रा निर्धारित कर कोई भी व्यक्ति मात्र इतने पर भी रह सकता है।
चावल, गेहूँ और मोटे अनाज भारत के मुख्य खाद्यान्न है। ये कैलोरी प्राप्ति के सस्ते से सस्ते साधन माने जाते हैंं। भारत की बहुसंख्य जनता को ७० से ८० प्रतिशत कैलोरी इन्हीं से मिलती है। पर इनके बारे में ठीक जानकारी न होने से सामान्यतया इन्हें विकृत रूप से लेकर नष्ट कर दिया जाता है। फलतः ग्रहण करते हुए भी व्यक्ति कुपोषण का शिकार बना रहता है। कुपोषण खाद्य का अभाव ही नहीं विकृति भी है-यह अच्छी तरह समझा जाना चाहिए। चावल में खाद्यान्न प्रोटीन अच्छी मात्रा में होते हैंं। बिना पालिश किया चावल लिया जाय तो उसकी पोषण क्षमता अच्छी होती है-इसमें सामान्यतया १२.६ प्रतिशत आर्द्रता , ८.५ ग्राम प्रतिशत प्रोटीन्स, ०.६ ग्राम प्रतिशत वसा, ७७.४ ग्राम प्रतिशत कार्बोज, ०.९ प्रतिशत खनिज लवण, ३४९ कैलोरी प्रति १०० ग्राम होते हैंं। प्रति 900 ग्राम में 90 मिली ग्राम विटामिन-बी, ४ मिली ग्राम विटामिन-बीर तथा ०.१२ मिली ग्राम विटामिन-बीद होता है। गेहूँ (दले हुए) में आर्द्रता कुछ कम, प्रोटीन १८.२ ग्राम प्रतिशत, वसा १.६ ग्राम प्रतिशत, कार्बोज ७७ ग्राम प्रतिशत, ऊर्जा ३५६ कैलोरी प्रति १०० ग्राम तथा कैल्सियम, फास्फोरस व लोहा क्रमशः ३७, ३९४ व ५ मिली ग्राम की मात्रा में होते हैंं। यह सन्तुलन की दृष्टि से श्रेष्ठ अनुपात है। ज्वार, बाजरा, जौ, कुट, कंगनी, मकई, जई, रागी, मुरमुरा, साँवा, कुठकी आदि मोटे अनाजों की श्रेणी में आते हैंं जिनमें न्यूनाधिक रूप से उपरोक्त सम्मिश्रण सन्तुलित अनुपात में होता है।
दालों में चना, उड़द, लोबिया, मूंग, कुलथी, मसूर, मोठ, मटर, राजमाह, अरहर एवं सोयाबीन की गिनती होती है। इनमें भी चना वसा (५३ ग्राम प्रतिशत), प्रोटीन्स (१७.१ ग्राम प्रतिशत) तथा कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा (क्रमशः २०२, ३१२, १०.२ मिली ग्राम प्रतिशत) की दृष्टि से सर्वाधिक सम्पन्न माना जाता है। मूंग में प्रोटीन का अनुपात २४ ग्राम प्रतिशत व वसा का १.३ प्रतिशत है लेकिन खनिज लवाणों तथा विटामिन-बी की दृष्टि से यह भी अपने आप में समग्र है (कैल्सियम १२४, फास्फोरस ३२६ लोहा ७.३)। इनमें स्वाभाविक रेशे भी ४.१ ग्राम प्रतिशत की मात्रा में होते हैं जो पाचन प्रक्रिया में सहायक होते हैंं। सभी खाद्यान्नों का विवरण देना तो सम्भव नहीं, पर जहाँ जैसा भी उपलब्ध हो उसी को स्वाभाविक रूप से लिया जा सके तो समग्र पोषण आहार अपने आप में ये खाद्यान्न भी बन सकते हैंं, इस तथ्य का प्रतिपादन किया जा रहा है। अंकुरीकृत अन्न वाष्प सिद्ध होकर उन सभी उपादानों को-जो शरीर निर्माण हेतु आवश्यक है, समुचित मात्रा में पहुँचाते हैंं व अपने सुक्ष्मतम रूप में अवशोषित होकर शोधन प्रक्रिया में सहायक होते हैंं। इस तथ्य भर को समझ लिया जाय तो खाद्य सम्बन्धी अधिकांश समस्याएं हल हो कसती है। जहाँ कुपोषण, खाद्य में पोषक तत्वों का अभाव एक समस्या है, वहाँ उनकी विकृति से शरीर को होने वाली हानि अपने आप में एक विडम्बना है, जिससे बहसंख्यक लोग पीड़ित देखे जाते हैं। साधना क्षेत्र में उतरने के पूर्व खाद्य की शक्ति सामर्थ्य का उद्भव व उससे अपनी जीवनी शक्ति में वृद्धि करने की विद्या समझना प्रत्येक के लिए अभीष्ट है।
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