लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

237 पाठक हैं

आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


इनमें तुलसी का स्थान सर्वोपरि है। यह एक संजीवनी बूटी है जो सीधे कारण शरीर को प्रभावित करने वाली निराली औषधि मानी जाती है। इसके नियमित सेवन से शरीर अति तथा स्वास्थ्य रक्षा का प्रमुख आधार बनता है।

वैज्ञानिक, अषियों, आचार्यों द्वारा गौ, गंगा, गीता, गायत्री की तरह तुलसी वृक्ष को भी भारतीय धर्म और संस्कृति का आवश्यक अंग मानना इसकी उपादेयता के फलस्वरूप ही है। तुलसी के गुणों का वर्णन करते-करते शास्त्रकार थक गया तो उसने एक वाक्य में सारी गाथा समाप्त कर दी-

अमृतोऽमृतरूपासि अमृतत्वप्रदायिनी।
त्व मामुद्धर संसारात क्षीरसागर कन्यके।।

विष्णुप्रिया ! तुम अमृत स्वरूप हो, अमृतत्व प्रदान करती हो, इस संसार से मेरा उद्धार करो।

तुलसी की पूजा-अर्चा से वस्तुतः कोई स्वर्ग उपलब्ध होता है या नहीं, ज्ञात नहीं किन्तु रोग-शोक के नरक में फंसे हुए लोगों के लिए तुलसी सचमुच इतनी उपयोगी पाई गई है कि उसे "उद्धारकर्ती" ही कहा जा सकता है।

तुलसी के अनेक गुणों का प्रकाश उसके अनेक पर्यायवाची नामों से ही हो जाता है। तुलसी के पत्ते चबाने से मुँह में लार, जो कि अत्यन्त पाचक, अग्निवर्धक, भूख बढ़ाने वाला तत्व है, बढ़ती है इसलिए उसे सुरसा कहा है। दूषित वायु, रोग और बीमारी के कीटाणु 'वायरस' रूपी भूत, राक्षस और दैत्यों के मार भगाने के कारण उसे भूतघ्नी, अपेतराक्षसी तथा दैत्यानी कहते हैंं। हिस्टीरिया, मृगी, मूर्छा, कुष्ठ आदि रोग जिन्हें पूर्व जन्मों के पाप कहा जाता है, वस्तुतः जो दीर्घकालीन विकृतियों (पापों) के फलस्वरूप असाध्य रोग पैदा हो जाते हैंं और जो बहुत उपचार करने पर
भी अच्छे नहीं होते वह भी तुलसी से अच्छे हो जाते हैं इसीलिए उसे पापघ्नी कहा गया है। इसका एक नाम फूल-पत्री है। अर्थात इसके पत्ते चबाने से शरीर शुद्ध होता है और शरीर में जीवनी शक्ति बढ़ती है। गौरी तंत्र तुलसी माहात्म्य में बताया है-

तुलसी पत्र सहितं जलं पिबति यो नरः।
सर्व पापविनिर्मुक्तो मुक्तो भवति भामिनी ॥३॥

तुलसी दल को जल में डालकर जो उस शीत-कषाय को पीते हैंं वे अनेक रोगों से छुटकारा पाते हैंं। चरणामृत वस्तुतः एक प्रकार का शीत-कषाय ही है। राजनिघण्टु करवीरादि १५२ में बताया है कि यह स्वाद और भोजन की रुचि बढ़ाती है, कीड़ों और छोटे कृमियों को, जो आँख से नहीं दिखाई देते (वायरसों) को मारती है। चरक ने इसे दमा, पसलियों के दर्द, खाँसी, हिचकी तथा विषों का दूषण ठीक करने में लाभदायक लिखा है। यह कफ दूर करती है, इसमें कपूर की तरह की एक सुगन्ध होती है जो दुर्गन्ध मिटाती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book