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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कल्प उपचार का सुदृढ़ वैज्ञानिक आधार
अन्तःकरण का मनः संस्थान पर, मनः संस्थान का शारीरिक स्थिति पर, शारीरिक स्थिति का क्रिया-कलाप पर और क्रिया-कलाप का परिस्थिति पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। इस रहस्य को समझा जा सके, तो यह स्वीकार करने में किसी को भी कठिनाई का सामना न करना पड़ेगा कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है इस तथ्य को समझा जा सके तो जिस-तिस पर दोषारोपण की आवश्यकता न रह जायेगी। तब परिस्थितियों की प्रतिकूलता को भी उतना दोषी न ठहराया जा सकेगा जितना कि इन दिनों बात-बात में समस्त असफलताओं और कठिनाइयों के लिए उन्हीं पर दोष मढ़ा जाता रहता है।
अध्यात्म का तात्पर्य है अपने आप का स्वरूप समझने और बलिष्ठ विकसित करने का विज्ञान क्रम। यही है उसका उद्देश्य एवं प्रयोग उपचार। इन दिनों तो उसे किन्हीं पूजा उपचारों के माध्यम से अमुक देवता को वशवर्ती बनाकर चित्र-विचित्र मनोकामनाओं की पूर्ति जादुई ढंग से करा लेने की कल्पना-जल्पना करना भर रही है। पर इससे क्या? भान्तियाँ-भटकाव ही उत्पन्न कर सकती है उनसे कुछ काम थोड़े ही बनता है। जिन्हें भी आत्म-विज्ञान में तात्विक अभिरुचि है, उन्हें समझाना होगा कि आत्म निर्माण के लिए किया गया पुरुषार्थ ही उलझी हुई समस्याओं का समाधान है। इस पुरुषार्थ के लिए आत्म अवलम्बन, आत्म - विश्वास और आत्म भूमि की दार्शनिक पृष्ठ भूमि होनी चाहिए।
आत्मबोध को मानव जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि माना गया है। इसी के आधार पर मनुष्य अपनी सत्ता, महत्ता, क्षमता एवं सम्भावना का मूल्यांकन कर सकने में समर्थ होता है। इस अनुभूति के साथ-साथ वह पराक्रमशीलता भी उभरती है जिसके सहारे अपने संचित कुसंस्कारों को समझना, उनकी हानियों को अनुभव करना तथा उखाड़ने के लिए संकल्पपूर्वक जुट जाना सम्भव हो सके। उखाड़ने में जितना पराक्रम चाहिए, प्रायः उतना ही उत्कृष्टता के अनभ्यस्त आधारों को अपनाने और स्वभाव का अंग बना लेने की मंजिल पूरी करने में भी नियोजित करना पड़ता है। अपने हाथों अपने आप को गलाना-ढालना बड़ा काम है। उसे करने के लिए असामान्य संकल्पशक्ति चाहिए। उसी के उपार्जन, अभिवर्धन के लिए जिन साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है, उनमें चान्द्रायण को मूर्धन्य माना गया है। इसमें उन सभी तत्वों का समावेश है, जिनमें आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार के दोनों प्रयोजन साथ-साथ सधते चलें। उसे परम्परागत धर्मानुष्ठानों की तरह सामान्य व्रत उपवासों की तरह नहीं माना जाना चाहिए। इस प्रक्रिया के पीछे ऐसे तथ्यों का समावेश है जिसका प्रतिफल उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है। यह साधना आस्थापरक है। उसमें श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा को प्रभावित करने वाली, अन्तराल को उत्कृष्टता के साथ जोड़ देने वाली क्रिया-प्रक्रिया का समावेश दूरदर्शिता एवं तत्वान्वेषी सूक्ष्म बुद्धि के साथ किया जाता है।
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