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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
परिस्थितियों को ही सब कुछ मानने वाले, साधनों को ही सौभाग्य समझने वाले लोगों को नये सिरे से अध्यात्म की वर्णमाला पढ़नी पड़ेगी और सिद्ध करना पड़ेगा कि परिस्थितियाँ एवं सम्पन्नताएँ मानवी प्रगति की आवश्यकता का एक बहुत छोटा अंश पूरा करती हैं। विभूतियों का उद्गम मानवी अन्तराल है। उसे सम्भाला सुधारा जा सके तो सुखद सम्भावनाओं का स्रोत हाथ लग जायेगा। फिर किसी बात की कमी न रहेगी। पाताल-फोड़ कहे जाने वाले कुओं को चट्टान के नीचे वाली जल धारा का अवलम्बन मिलता है। फलतः निरन्तर पानी खींचते रहने पर भी उसकी सतह घटती नहीं। जितना खर्च होता है, उतना ही उछलकर ऊपर आ जाता है। मनुष्य को अनेक क्षेत्रों में काम करना पड़ता है। उनके लिए अनेक प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता पड़ती है। सम्वर्धन के लिए एक प्रकार की तो बौद्धिक क्षमता का विकास करने के लिए दूसरे प्रकार की। सूझ-बूझ एक बात है और व्यवहार कुशलता दूसरी। विद्वता दूसरी चीज है और एकाग्रता का रूप दूसरा है। कलाकारों का ढाँचा एक प्रकार का होता है और योद्धाओं का दूसरा। इन सभी को अपने ढंग की शक्तियाँ चाहिए। उनके अभाव में सफलता तो दूर, कुछ कदम आगे बढ़ चलना तक सम्भव नहीं होता। कहना न होगा कि असंख्य सामों का असीम भण्डागार मनुष्य के अन्तराल में विद्यमान है। यह चेतना क्षेत्र का एक वृहत्तर महासागर है जिसमें हर स्तर की सामर्थ्य खोज निकाली जा सकती है। कहना न होगा कि दृश्यमान सभी सफलताओं, विभूतियों का उपार्जन एवं उपयोग इसी अन्य शक्ति के सहारे सम्भव होता है। उसके अभाव में जीवित मृतकों जैसी अशक्तता ही छाई रहेगी।
उपरोक्त तथ्यों पर सहसा विश्वास नहीं होता। इन दिनों आत्मा का अस्तित्व तक संदिग्ध माना जाता है और उस क्षेत्र में सन्निहित सामर्थ्यो के प्रभाव पर अविश्वास किया जाता है। ऐसी दशा में यह अति कठिन हो जाता है कि प्रत्यक्षवादी विचारशील वर्ग को यह विश्वास दिलाया जा सके कि वे आत्मबल का महत्व समझें और उसके उपार्जन का सच्चे मन से प्रयत्न करें। यदि यह तथ्य गले न उतरे, तो फिर साधना क्षेत्र की कोई भी क्रिया उथले मन से लकीर पीटने की तरह ही किसी प्रकार धकेली-घसीटी जाती रहेगी। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में उत्कृष्टता के पक्षधर प्रयासों के साथ तादात्म्य जुड़ सकना कठिन है। मात्र पशु प्रवृत्तियों में वह आकर्षण है कि वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए उत्तेजित करती और कुकर्म कराती रहे।
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