आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
लोहा करने का अर्थ है-भावी जीवन की रीति-नीति का व्यवस्थापूर्वक निर्धारण। इसमें सोचने का ढंग, दृष्टिकोण बदलना और कार्य पद्धति का हेर-फेर यह दोनों ही बातें सम्मिलित हैं। शरीर की क्रियायें बदलें, मन न बदले तो भी काम नहीं चलेगा और मन बदल जाय, शरीर वही हेय कर्म करता रहे तो भी वह बिडम्बना ही है। दोनों की परिवर्तित स्थिति भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करती है और जिस पर चलने का सुदृढ़ निश्चय किया जाता है, उसी की सार्थकता है। प्रायश्चित का आरम्भिक जीवन शोधन की तड़प से आरम्भ होता है मध्य में शोधनात्मक क्रिया से कृत्य करना पड़ता है और अन्त में भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करने के रूप में उसकी पूर्णाहुति करनी पड़ती है। सर्वांगीण प्रायश्चित की यही समग्र प्रक्रिया है।
दुष्कर्मों से अपने अन्तःकरण को, विचार संस्थान को तथा कार्यक्रमों को जिस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों से भर दिया गया था, उसी साहस और प्रयास के साथ इन तीनों संस्थानों के परिमार्जन, परिशोधन एवं परिष्कार की प्रक्रिया को प्रायश्चित कहा गया है। पाप कर्मों से समाज को क्षति पहुँचती है। सामान्य मर्यादा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न होता है, लोक परम्परायें नष्ट होती हैं, अनेक को कुमार्ग पर चलने के लिए अनुकरण का उत्साह मिलता है। उन्हें क्षति पहुँचती है, वे विलाप करते हैंं और उससे वातावरण विक्षुब्ध होकर सार्वजनिक सुख शांति के लिए संकट उत्पन्न होता है। ऐसे-ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें देखते हुए समझा जा सकता है कि जिसे पापकर्म द्वारा क्षति पहुँचाई गई, अकेले उसी की हानि नहीं हुई, प्रकारान्तर से सारे समाज को क्षति पहुँची है। विराट् ब्रह्म को, विश्व मानव को ही परमात्मा कहा गया है। अतः यह एक प्रकार से सीधा परमात्मा पर आक्रमण करना, उसे आघात पहुँचाना और रुष्ट करना हुआ। अपराध भले ही व्यक्ति या समाज के प्रति किये गये हों, उनका आघात सीधे ईश्वर के शरीर पर पड़ता है और उसे तिलमिलाने वाले कभी सुखी नहीं रहते।
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