आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
अवांछनीयताओं का तत्काल परिशोधन होता रहे, गन्दगी जमा न होने पाये-यह उचित है। देर तक जमा रहने के उपरान्त गन्दगी की सड़न अधिकाधिक बढ़ती जाती है। शरीर में जमा हुआ विजातीय द्रव्य जितने अधिक समय तक ठहरेगा, उसी अनुपात से विष बढ़ता जायेगा और सामान्य रोगों की अपेक्षा उससे असाध्य बीमारियाँ उपजेंगी। पुराना कर्जा ब्याज समेत कई गुना हो जाता है। मनोमालिन्य बहुत समय तक टिका रहे तो वह द्वेष-प्रतिशोध का रूप धारण कर लेता है। संचित पाप कर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनका प्रतिफल भगतने में जितनी देर होगी. उतनी ही प्रतिक्रिया भयंकर होगी। नया अपच जुलाब की एक गोली से साफ हो जाता है किन्तु यदि कई दिन तक मल रुका रहे तो उसकी पत्थर जैसी कठोर गाँठे बनकर ऐसे भयंकर उदर शूल का कारण बनती हैं, जिसके लिए
पेट फाड़कर गाँठं निकालने के अतिरिक्त और कोई चारा ही शेष नहीं रह जाता। गन्दगी को जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही उत्तम है।
इस जन्म के विदित और विस्मृत पापों से लेकर जन्म-जन्मान्तरों तक के पापों का निराकरण आवश्यक है। उन्हें निकालना और निरस्त करना अत्यन्त अनिवार्य कार्य है। विष खा जाने की गलती का परिमार्जन इसी प्रकार हो सकता है कि पेट और आँतों की धुलाई करके वमन-विरेचन द्वारा उसे जल्दी से जल्दी बाहर किया जाय। प्राण-संकट उसी से टल सकता है। प्रायश्चित ही परिशोधन का एक मात्र उपाय है।
साधना विज्ञान में शारीरिक मानसिक मलीनताओं के निष्कासन पर जोर दिया गया है। आयुर्वेद में विकारग्रस्त शरीरों के मलशोधन की प्रक्रिया के उपरान्त चिकित्सा का समुचित प्रतिफल मिलने की बात कही गई है। हठयोगी नेति, धोति, वस्ति, न्यौली, कपालभाति आदि क्रियाओं द्वारा मलशोधन करते हैंं। आयुर्वेद में वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन, नस्य आदि शोधन कर्मों से संचित मलों का निष्कासन किया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा में यही कार्य उपवास और एनीमा के द्वारा किया जाता है। राजयोग में यम-नियमों का विधान है। कुण्डलिनी योग में नाड़ी-शोधन की अनिवार्यता है। यों उसका बाह्य विधान प्राणायामों की विशेष प्रक्रिया पर आधारित है, पर उसका मूल उद्देश्य शारीरिक और मानसिक क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों का निराकरण ही है।
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