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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


लोहे को काटने के लिए लोहा, विष को मारने के लिए विष, काँटे को निकालने के लिए काँटा प्रयुक्त करना पड़ता है। दुष्कर्मों के संचय को सत्कर्मों से निरस्त किया जाता है। आग में गरम करने से घातुओं की शुद्धि होती है। रसायन बनाने के लिए अग्नि-संस्कार की विधि प्रयुक्त होती है। तपाने में ईंटों से लेकर मृतिका पात्र तक मजबूत होते हैंं। पानी गरम करने से शक्तिशाली भाप बनती है। तपश्चर्या की आग में संचित दुष्कर्मों और कुसंस्कारों का परिशोधन होता है। स्वेच्छापूर्वक दण्ड स्वीकार करने की शालीनता अपना लेने में पकड़े जाने पर दण्ड पाने की अपेक्षा मनुष्य की अधिक बुद्धिमानी है। इससे खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से पाया जा सकता है। भूल को स्वीकार करने और सुधारने वाले व्यक्ति दया के पात्र समझे जाते हैंं। उलट पड़ने से सुधार होता भी द्रुतगति से है। वाल्मीकि, अशोक, अंगुलिमाल, अजामिल, बिल्वमंगल आदि जब उलट गये तो उनका कुकर्मों में प्रयुक्त होने वाला दुःसाहस सत्साहस में बदल गया और वे धंस की अपेक्षा सृजन की भूमिका सम्पन्न करने लगे। प्रायश्चित इसी स्तर का प्रयोग है।

प्रायश्चित विधानों के अगणित उल्लेख कथा पुराणों में भरे पड़े है। शंख और लिखित दो भाई थे। एक ने दूसरे के बगीचे से बिना पूछे फल खा लिये। यह चोरी हुई। उनने राजा के पास जाकर आग्रहपूर्वक दण्ड व्यवस्था कराई और उसे भुगता। बिल्वमंगल ने कुदृष्टि रखने वाली आँखों को ही नष्ट कर लिया. इस पर वे सरदास बने। सती ने शिवजी का आदेश नहीं माना और वे बिना बुलाए पितृ-गृह चली गईं। भूल समझ में आने पर उनने आत्मदाह कर लिया। धृतराष्ट्र और गान्धारी ने अपनी यह भूल स्वीकार की कि उनने अपने पुत्रों को अनीति से रोकने में आवश्यक कड़ाई नहीं बरती और महाभारत का विनाश उत्पन्न हो गया।

दोनों ने प्रायश्चित करने की ठानी और वे मरण पर्यन्त वनवास में रहकर तपश्चर्या करते रहे। कुन्ती ने भी अपनी भूलें स्वीकार की और वे भी धृतराष्ट्र, गान्धारी की सेवा करने के लिए उन्हीं के साथ वन गई। भूलें मात्र कौरवों की ही नहीं थीं, उसमें जुआ खेलने और पत्नी को दाँव पर लगाने जैसे अनेक दोष पाण्डवों के भी थे। अस्तु कुन्ती को भी हिमालय में शीत से गलकर प्राण त्यागने का प्रायश्चित विधान अपनाना पड़ा।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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