आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
कर्मफल की सुनिश्चितता : एक महत्वपूर्ण तथ्य
कर्मफल अथवा कर्म-परिपाक से कालान्तर में मिलने वाले परिणाम एक ऐसी सच्चाई का रहस्योद्घाटन करते हैंं, जिसे इच्छा या अनिच्छा से सबको स्वीकार करना होगा। यह मानकर चलना चाहिए कि समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की श्रृंखला में जकड़ी हुई है। अनुशासन के उल्लंघन की किसी को भी विशेषाधिकार के नाते छूट नहीं। क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम हरेक पर, स्थान-स्थान पर लाग होता है और उसकी परिणति का दर्शन पग-पग पर होता है।
भूतकाल के कृत्यों के आधार पर ही वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसके अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। जो विद्या किशोरावस्था में कमाई जाती है एवं स्वास्थ्य सम्पदा जवानी में अर्जित होती है, वह बाद में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता के रूप में सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरुपयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर में आने, देर तक जीने या जल्दी मृत्यु की गोद में चले जाने के रूप में परिणत होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन में साथ जाती है और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।
यही प्रक्रिया संसार की समस्त गतिविधियों में दृष्टिगोचर होती है, जीवन के हर क्षेत्र में अपने प्रभाव का परिचय देती है। आज की परिस्थितियों के सम्बन्ध में पिछले आलस्य या उत्साह को श्रेय दिया जा सकता है। सत्कर्म एवं दुष्कर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे देर सबेर में अपनी परिणति प्रस्तुत किये बिना रहते ही नहीं। वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है उसमें कृत्य की ही प्रधान भूमिका रहती है।
कुछ कर्म तत्काल फल देते हैंं, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योगशाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्परिणाम सर्वविदित है, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया जाता है। कुछ काम अवश्य ऐसे होते हैंं जो हाथों हाथ फल देते हैं। मदिरा पीते ही नशा आता है। जहर खाते ही मृत्यु होती है। गाली देते ही यूँसा तनता है। दिनभर परिश्रम करने पर ही शाम को मजूरी मिलती है। टिकिट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेक काम है, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे होते हैंं जो देर लगा देते हैंं। असंयमी लोग जवानी में खोखले बनते रहते हैंं। उस समय कुछ पता नहीं चलता किन्तु दस बीस वर्ष भी बीतने नहीं पाते कि काया की जर्जरता अनेक रोगों से घिर जाती है।
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