आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
समय साध्य परिणितियों को देखकर अनेक को कर्मफल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैंं कि आज का प्रतिफल हाथों हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित भविष्य में भी कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते और बुरे काम करने वाले अधिकांश निर्भय-निरंकुश बनते हैंं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान ने मनुष्य की दूरदर्शिता, विवेकशीलता को जाँचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूठ बोलते ही मुँह में छाले भर जायें। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुंसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों-हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय, उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुजायश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचायें और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैंं, उन्हें भी धैर्यपूर्वक सहन करें। वस्तुतः कर्म फलित होने में देर लगती है। हथेली पर सरसों उगाई जा सकती है, बोने से दस दिन में ही जिनके अंकर छः इन्च ऊँचे उग आते हैंं। किन्त जिनका जीवन लम्बा है, जो चिरस्थाई है, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती है। नारियल की गुठली बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षों में धीरे-धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है, जबकि अरण्ड का पेड़ कुछ ही महीनों में बढ़ने और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, हवेल जैसे जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं, जबकि खरगोश जैसे छोटे प्राणी एक वर्ष में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत ही जल्दी आता है, पर वे मरते भी उतनी ही जल्दी है। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार-शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों हाथ मिलता रहता है। उसकी उपलब्धियाँ सामयिक होती हैं, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव सवेदनाएँ और आस्थाएँ जुड़ी होती है। जड़ें अन्तरंग की गहराई में फंसी रहती हैं इसलिए उनके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैंं और लम्बी अवधि तक ठहरते हैंं। इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म-जन्मांतरों जितना समय लग जाता है।
अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से हुई है। उसमें स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, सच्चाई जैसी सत्प्रवृत्तियाँ ही भरी पड़ी है। जीवन-यापन की रीति-नीति उत्कृष्टता के आधार पर बनाने की प्रेरणा इस क्षेत्र से अनायास ही मिलती रहती है।
इस क्षेत्र में जब निकृष्टता प्रवेश करती है तो सहज ही उसकी प्रतिक्रिया होती है। रक्त में जब बाहरी विजातीय तत्व प्रवेश करते हैंं तो श्वेत कण उन्हें मार भगाने में प्राण-पण से संघर्ष छेड़ते हैंं और परास्त करने में कुछ उठा नहीं रखते। ठीक इसी प्रकार अन्तःकरण की दैवी चेतना भी आसुरी दुष्प्रवृत्तियों को जीव-सत्ता में प्रवेश करने और जड़ जमाने की छूट नहीं देना चाहती। फलतः दोनों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। यही अर्न्तद्वन्द्व है जिसके बने रहते आंतरिक जीवन अशांत ही बना रहता है और उस विक्षोभ की अनेक दुःखदायी प्रतिक्रियाएँ फूट-फूटकर बाहर आती रहती है।
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