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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


दो साँड़ लड़ते हैं तो लड़ाई की जगह को तहस-नहस करके रख देते हैंं। खेत में लड़ें तो समझना चाहिए कि उतनी फसल चौपट ही हो गई। दुष्प्रवृत्तियाँ जब भी, जहाँ भी अवसर पाती है वहीं घुसपैठ करने, जड़ जमाने में चूकती नहीं। घुन की तरह मनुष्य को खोखला करती है और चिनगारी की तरह चुपचाप सुलगती हुई अन्त में सर्वनाशी ज्वाला बनकर प्रकट होती है। ठीक इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियाँ आत्म-सत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए कुचक्र रचती रहती है। किन्तु अन्तरात्मा को यह स्थिति सह्य नहीं। अस्तु वह विरोध पर अड़ी ही रहती है। फलतः संघर्ष चलता ही रहता है और उसके दुष्परिणाम अनेकानेक शोक संतापों के रूप में सामने आते रहते हैंं।

मनोवैज्ञानिक इस स्थिति को 'दो व्यक्तित्व' कहते हैंं। एक ही शरीर में दो भले-बुरे शांति, सहयोगपूर्वक रह नहीं सकते। कुत्ते-बिल्ली की, साँप-नेवले की दोस्ती कैसे निभे? एक म्यान में दो तलवारें ठूसने पर म्यान फटेगी ही। शरीर में ज्वर या भूत घुस पड़े तो दुर्दशा होती है इसे सभी जानते हैंं। नशेबाजों की दयनीय स्थिति देखते ही बनती है। यह परस्पर विरोधी शक्तियों का एक स्थान पर जमा होना ही है जिसमें विग्रह की स्वाभाविकता टाली नहीं जा सकती।

आत्मा को कितना ही कुचला जाय, वह न मरने वाली है और न हार मानती है। अनसुनी, उपेक्षित पड़ी रहने पर भी अन्तरात्मा की विरोधी आवाज उठती ही रहती है। दुष्कर्म करते समय जी धड़कता और पैर काँपते हैं। यह स्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न कर दी जाय उसका अस्तित्व बना ही रहेगा और झंझट तब तक चलता ही रहेगा, जब तक दुष्प्रवृत्तियाँ उस घुसपैठ से अपना पैर वापिस न लौटा लें।

अन्तर्द्वन्द्व जीवन की शक्ति और सुव्यवस्था को नष्ट करते हैंं, प्रगति पथ अवरुद्ध करते हैं और भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैंं। पापों की परिणति से किसी भी बहाने बचा नहीं जा सकता। यह शारीरिक संविधान की सामान्य प्रक्रिया पद्धति हुई। इसके अतिरिक्त समाजगत, प्रकृतिगत एवं ईश्वरीय व्यवस्था के और भी ऐसे कितने ही आधार हैं जिनके कारण कुमार्गगामी को अपने दुष्कृत्यों के दण्ड अनेक प्रकार भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है।

राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोकथाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करततों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी, जेल, फाँसी आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक, शारीरिक और मानसिक दण्ड भुगतते हैं, बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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