आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
इतने पर भी पीछा नहीं छूटता। शारीरिक 'व्याधि और मानसिक 'आघि' उन्हें घेरती है और तिल-तिल करके रेतने-काटने जैसा कष्ट देती हैं। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियंत्रण में आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, श्वास-प्रश्वास, रक्तसंचार, ग्रहण-विसर्जन आदि अनेक स्वसंचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ चलती हैं। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम करती है। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केन्द्र संस्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया-कलाप का अनुभव करते हैंं। यह संस्थान-मनोविकारों से, पाप, ताप एवं कषाय-कल्मषों से विकत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर पड़ता है और मानसिक संतुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ठाँचा लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों की नई शोध होती है और उनके लिए आये दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूँढ़े जाने की घोषणाएँ होती है। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे है और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है। आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे हैं, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का कोई उपयुक्त समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएँ अपना जादू दिखाती तो है, पर दूसरे ही क्षण रोग बदलकर नई आकृति में फिर खड़े होते हैंं। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।
न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों की भी इन दिनों बाढ़ आई हुई है। सिरदर्द, आधाशीशी, जुकाम, अनिद्रा, उन्माद, बेहोशी के दौरे आदि तो प्रत्यक्ष और प्रकट मस्तिष्कीय रोग है। चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, आत्महीनता जैसे अवसाद और क्रोध, अधीरता, चंचलता, उद्दण्डता, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण जैसे आवेश मनःसंस्थान को ज्वार-भाटों की तरह असंतुलित बनाये रहते हैंं। फलतः मानसिक क्षमता का अधिकांश भाग निरर्थक चला जाता है एवं अनर्थ बुनने में लगा रहता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों से लेकर आत्म-हत्या तक की अगणित उत्तेजनाएँ विकृत मस्तिष्क के उपार्जन ही तो हैं। तरह-तरह की सनकों से कितने ही लोग सनकते रहते हैंं और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते हैंं। दुर्व्यसनों और बुरी आदतों से ग्रसित व्यक्ति अपना, साथियों का कितना अहित करते हैंं, यह सर्वविदित है। पागलों की संख्या तो संसार में तेजी के साथ बढ़ ही रही है। मनोविकार ग्रसित, अर्घविक्षिप्त लोगों की गणना की जाय तो आधी जनसंख्या इसी चपेट में आई हुई दिखाई पड़ेगी। शारीरिक रोगों का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। दुर्बलता और रुग्णता से सर्वथा अछूते व्यक्ति बहुत ही स्वल्प मात्रा में मिलेंगे। जिन्हें शारीरिक एवं मानसिक रोगों से सर्वथा मुक्त, पूर्ण निरोग कहा जा सके ऐसे लोगों को ढूँढ़ निकालना इन दिनों अतीव कठिन है।
रंगाई से पूर्व धुलाई आवश्यक है। यदि कपड़ा मैला-कुचैला है तो रंग ठीक नहीं चढ़ेगा। इस प्रयास में परिणाम, समय और रंग सभी नष्ट होंगे। कपड़े को ठीक तरह धो लेने के उपरान्त उसकी रंगाई करने पर अभीष्ट उद्देश्य पूरा होता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए की गई साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए उन अवरोधों का समाधान किया जाना चाहिए जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप आत्मोत्कर्ष के मार्ग में पग-पग पर कठिनाई उत्पन्न करते हैंं। दीदार बीच में हो तो उसके पीछे खड़ा हुआ मित्र अति समीप रहने पर भी मिल नहीं पाता। कषाय-कल्मषों की दीवार ही हमें अपने इष्ट से मिलने में प्रधान अवरोध खड़ा करती है।
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