आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
आज की अपनी दुःखद परिस्थितियों के लिए भूतकाल की भूलों पर दृष्टिपात किया जा सकता है। इसी प्रकार सुखी समुन्नत होने के सम्बन्ध में भी पिछले प्रयासों को श्रेय दिया जा सकता है। इस पर्यवक्षण से सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि अशुभ विगत को धैर्यपूर्वक सहन करें या फिर उसका प्रायश्चित करके परिशोधन की बात सोचें। शुभ पूर्व कृत्यों पर संतोष अनुभव करें और उस सत्य प्रवृत्ति को आगे बढ़ायें। यह नीति निर्धारण की बात हुई। अब देखना यह है कि यदि आधि-व्याधियों के रूप में अशुभ कर्मों की काली छाया सिर पर घिर गई है तो उसके निवारण का कोई उपाय है क्या?
जो कर्मफल पर विश्वास न भी करते हों उन्हें भी मानवी अन्तःकरण की संरचना पर ध्यान देना चाहिए और समझना चाहिए कि वहाँ किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं। पूजा-प्रार्थना से भी दुष्कर्मों का प्रतिफल टलने वाला नहीं है। देव-दर्शन, तीर्थ स्नान आदि से इतना ही हो सकता है कि भावनाएँ 'बदलें, भविष्य के दुष्कृत्यों की रोकथाम बन पड़े, अधिक बिगड़ने वाले भविष्य की सम्भावना रुके। पर जो किया जा चुका, उसका प्रतिफल सामने आना ही है। उसके उपचारार्थ शास्त्रीय परम्परा और मनःसंस्थान की संरचना को देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि खोदी हुई खाई को पाटा जाय। प्रायश्चित के लिए भी वैसा ही साहस जुटाया जाय जैसा कि दुष्कर्म करते समय मर्यादा उल्लंघन के लिए अपनाया गया था। यही एकमात्र उपचार है जिससे दुष्कर्मों की उन दुखद प्रतिक्रियाओं का समाधान हो सकता है जो शारीरिक रोगों, मानसिक विक्षोभों, विग्रहों, विपत्तियों, प्रतिकूलताओं के रूप में सामने उपस्थित होकर जीवन को दूभर बनाये दे रही है। यह विषाक्तता यदि लदी रही तो भविष्य के पूरी तरह अन्धकारमय होने की भी आशंका है। अस्तु प्रायश्चित को अपनाकर, सामाजिक दुःख-कष्ट भोगकर वर्तमान और भविष्य को सुखद बनाना ही दूरदर्शिता है। कर्मफल के इस अकाट्य तथ्य को दृष्टिगत रखकर ही कल्प साधना में साधकों के लिए प्रायश्चित की व्यवस्था की गई है।
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