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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
दुष्कृतों के अवरोधों को हटाने की साहसिकता उभरे
साधना क्षेत्र में इस प्रांति को मिटा देना चाहिए कि संचित दुष्कर्मों को अपने ही स्थान पर छोड़कर आत्मिक प्रगति की जा सकती है। ऐसी उड़ान न तो सम्भव है और न विधि-विधान के अनुकूल ही। कक्षायें उत्तीर्ण करते हुए ही विद्यार्थी स्नातक की उपाधि पाते और अफसर बनते हैंं। छलागें भी कई क्षेत्रों में लगती हैं और लोग जीवट भरे काम करते सफल होते दिखाई देते हैं। परन्तु आत्मिक क्षेत्र में ऐसी सुविधा नहीं है। संचित दुष्कर्मों से विनिर्मित प्रारब्ध न केवल विपत्तियों, असफलताओं का त्रास देता है, वरन् उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर चलने में भी अनेक विज उपस्थित करता है। रास्ते को रोके खड़ी इन चट्टानों को हटाने-सरकाने के लिए साहसपूर्ण पराक्रम अन्तः से उभरकर आता है और स्वयं को कष्ट देते हुए भी मन को शांत व काया को स्वस्थ बनाता है। यही है प्रायश्चित प्रक्रिया, जिसे कल्प साधना में प्रमुखता और वरीयता दी गई है।
कर्मफल की सम्भावना सुनिश्चित है, उसे विश्व-व्यवस्था का एक अनिवार्य एवं अविच्छिन्न अंग ही समझा जाना चाहिए। इन संचयों को स्वयं ही भुगतना होता है। देव-दर्शन, नदी-स्नान, पूजा-उपचार, कथा-वार्ता एवं छुट-पुट कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनसे परिशोधन-परिमार्जन की ओर ध्यान मुड़े, महत्व समझने का अवसर मिले और वह साहस उभरे जिससे कर्मफल भुगतने का दूसरा विकल्प-प्रायश्चित स्वेच्छापूर्वक बन पड़े। प्रायश्चित के लिए किये जाने वाले व्रत-उपदानों के सामयिक प्रतिफल भी होते हैंं, किन्तु वास्तविक एवं चिरस्थायी लाभ देने वाला तथ्य यह है कि दुष्कृत्यों के प्रति घृणा उभरे, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प मचले, साथ ही जो किया गया है उसकी क्षति-पूर्ति करने की सदाशयता की खाई पाटने के लिए उत्साह भरा साहस उत्पन्न करे।
यह सारा संसार कर्म व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। भगवान् ने दुनियाँ बनाई और उसके ससंचालन के लिए कर्म-विधान रच दिया।
जो जैसा करता है. वह वैसा भोगता है, सिद्धांत अकाट्य है। लोग भ्रम में इसलिए पड़ते हैं कि कई बार कर्मों का तत्काल फल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। यदि शुभ-अशुभ कर्मों का फल तत्काल मिल जाया करता तो दूरदर्शिता, विवेकशीलता की आवश्यकता ही न पड़ती। आग छूने से हाथ जल जाता है इस प्रत्यक्ष तथ्य के कारण कोई आग में हाथ डालने की मूर्खता नहीं करता। किन्तु सुकत्यों और दुष्कत्यों का परिणाम तत्काल नहीं मिलता। उसके परिपाक में देरी हो जाती है। इतने में ही बाल-बुद्धि के लोग अधीर हो जाते हैंं। पुण्य के सम्बन्ध में निराशा और पाप के सम्बन्ध में निर्भय हो जाते हैंं। जो करणीय है उसे छोड़ बैठते हैंं और जो नहीं करना चाहिए उसे करने लगते हैंं। यही है वह माया, जिसके बन्धन में जकड़े हुए लोक दिग्भ्रान्त होते, भूल भुलयों में उलझते तथा भटकावों में खिन्न, उद्विग्न बने दिखाई पड़ते हैंं।
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