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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4194
आईएसबीएन :0000

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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....


न केवल अध्यात्म क्षेत्र में वरन् भौतिक जीवन में भी यही सिद्धांत काम करता है। रक्त विकार जैसे रोगों को दूर करने के लिए कुशल वैद्य पेट की सफाई करने के उपरान्त अन्य रक्त शोधक उपचार करते हैंं। कायाकल्प चिकित्सा में बलवर्धक औषधियों का नहीं, संचित मलों का निष्कासन करने वाले उपायों को ही प्रधान रूप से कार्यान्वित किया जाता है। वमन, विरेचिन, स्वेदन आदि क्रियाओं द्वारा मल निष्कासन का ही प्रयास किया जाता है इसमें जितनी सफलता मिलती जाती है, उसी अनुपात से जरा जीर्ण, रोगग्रस्त व्यक्ति भी आरोग्य लाभ करता है और बलिष्ठ बनता चला जाता है। कायाकल्प चिकित्सा का विज्ञान इसी सिद्धांत पर आधारित है।

दोष, दर्गणों के रहते चिरस्थाई प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ नहीं पड़ता, पशु पालने और दुहने का श्रम निरर्थक चला जाता है। कषाय-कल्मषों से, दोष-दुर्गणों से लड़ने के लिए जो संघर्ष, पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसी के विधि-विधानों को तप साधना कहते हैंं। अपना शोधन जितना अधिक सम्भव हो सके, समझना चाहिए-कल्प साधना की तप प्रक्रिया में उतनी ही प्रगति पथ की यात्रा पूरी कर ली गई। इसके अभाव में कठोर अनुष्ठान भी अधूरे रह जाते हैंं। असफलता के कारण, कर्मफल के न मिल पाने के कारण ऐसे व्यक्ति निराश होते हुए भी देखे जाते हैंं, पर कालान्तर में शोधन पूरा होते ही उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। आयुर्वेद के प्रख्यात ग्रन्थ माधव निदान के प्रणेता माधवाचार्य अपने साधना काल में वृन्दावन में रहकर समग्र तन्मयता के साथ गायत्री महापुरुश्चरणों में संलग्न थे। उन्होंने पूर्ण विधि-विधान के साथ लगातार ११ वर्षों तक अपनी साधना जारी रखी। इतने पर भी उन्हें सिद्धि का कोई लक्षण प्रकट होते दिखाई न पड़ा। इस असफलता से उन्हें निराशा भी हुई और खिन्नता भी। सो उसे आगे और चलाने का विचार छोड़कर काशी चले गये।

काशी के गंगा तट पर वे बड़ी दुःखी मनःस्थिति में बैठे हुए थे कि उधर से एक अघोरी कापालिक आ निकला। साधक की वेशभूषा और छाई खिन्नता जानने के लिए वह रुक गया और कारण पूछने लगा। माधवाचार्य ने अपनी व्यथा कह सुनाई। कापालिक ने आश्वासन दिया कि उसे वैभव की सिद्धि का विधान आता है। एक वर्ष तक उसे नियमित रूप से करने पर सिद्धि निश्चित है। माधवाचार्य सहमत हो गये और कापालिक के बताये हुए विधान के साथ मणिकर्णिका घाट की श्मशान भूमि की परिधि में रहकर साधना करने लगे, बीच-बीच में कई डरावनी और लुभावनी परीक्षायें होती रहीं। उनका धैर्य और साहस सुदृढ़ बना रहा, एक वर्ष पूरा होते-होते भैरव प्रकट हुए और वरदान माँगने की बात कहने लगे।

माधवाचार्य ने आँख खोलकर चारों ओर देखा पर बोलने वाला कहीं दिखाई न पड़ा। उन्होंने कहा-'यहाँ आये दिन भूत-पलीत ऐसी ही छेड़खानी करने आया करते हैं और ऐसी ही चित्र-विचित्र वाणियाँ बोलते हैं। यदि आप सचमुच ही भैरव है तो सामने प्रकट हों। आपके दर्शन करके चित्त का समाधान कर लूँ तो वरदान माँगू।' इसका उत्तर इतना ही मिला, “आप गायत्री के उपासक रहे हैं। आपके मुख मण्डल पर इतना ब्रह्म तेज छाया हुआ है कि सामने प्रकट होकर अपने को संकट में डालने की हिम्मत नहीं है। जो माँगना हो ऐसे ही माँग लो।"

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग

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