आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
माधवाचार्य असमंजस में पड़ गये- 'यदि गायत्री पुरुश्चरणों से इतना ही ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है तो उसकी कोई अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई?' सिद्धि का आभास क्यों नहीं हुआ। यह प्रश्न बड़ा रहस्यमय था, जो भैरव के सम्वाद से ही उपजा था। उन्होंने समाधान भी उन्हीं से पूछा और कहा- 'देव ! यदि आप प्रकट नहीं हो सकते और गायत्री उपासक को इतना तेजस्वी पाते हैंं तो कृपा कर यह बता दें कि मेरी इतनी निष्ठा भरी उपासना निष्फल कैसे हो गई? इतना समाधान करा देना भी आपका वरदान जैसा ही होगा। जब आप गायत्री तेज के सम्मुख होने तक का साहस नहीं कर सकते तो फिर आपसे अन्य वरदान क्या माँगू।'
भैरव ने उनकी इच्छा पूर्ति की और पिछले ग्यारह जन्मों के दृश्य दिखाये जिनमें अनेक पाप कृत्यों का समावेश था। भैरव ने कहा- 'आपके एक-एक जप गायत्री पुरुश्चरण से एक-एक जन्म के पाप कर्मों का परिशोधन हुआ है। ग्यारह जन्मों के संचित पाप निर्मित प्रारब्धों के दुष्परिणाम इन ग्यारह वर्षों की तप साधना से नष्ट हुए है। अब आप नये सिरे से फिर उसी उपासना को करें। संचित प्रारब्ध की निवृत्ति हो जाने से आपको आगे के प्रयासों में सफलता मिलेगी।'
माधवाचार्य फिर वृन्दावन लौट गये और बारहवाँ पुरश्चरण करने लगे। अब की बार उन्हें आरम्भ से ही साधना की सफलता के लक्षण प्रकट होने लगे और बारहवाँ वर्ष पूरा होने पर इष्टदेव का साक्षात्कार हुआ, उन्हीं के अनुग्रह से वह प्रज्ञा प्रकट हुई, जिसके सहारे माधव निदान जैसा महान ग्रन्थ लिखकर अपना यश अमर करने और असंख्यों का हित साधन कर सकने की उपलब्धि मिली और जीवन का लक्ष्य पूरा कर सकने में सफल हुए।
इस गाथा से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि साधना की सिद्धि में प्रधान बाधा क्या है? संचित दुष्कर्म ही उस मार्ग की सफलता में प्रधान रूप से बाधक होते हैं। यदि उनके निराकरण का उपाय सम्भव हो सके तो अभीष्ट सफलता सहज ही मिलती चली जायेगी।
बाल विनोद की प्रारम्भिक साधनायें तो मात्र नित्य कर्म कहलाती है। उनमें देव प्रतिमाओं के पूजा उपचार को ही महत्व दिया जाता है और अनेक गुना अधिक माहात्म्य समझाया जाता है। उच्चस्तरीय साधनाओं का परिणाम भी असाधारण होता है। उसके लिए उचित मूल्य चुकाने वाली कठोर साधनाएँ अनिवार्य है। संचित अशुभ का निराकरण और शुभ, सुखद का शीघ्र परिपाक होने के दोनों ही उद्देश्य इन तप साधनाओं द्वारा सम्पन्न होते हैंं। कल्प साधना जैसे उपक्रमों को अपनाते हुए साधक निश्चित ही प्रगति पथ पर अग्रसर होता है।
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