आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
पापों का प्रतिफल और प्रायश्चित शास्त्र अभिमत
सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल तत्काल न सही यों देर सबेर में अवश्य मिलता है। इस संदर्भ में किसी को भी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि जो किया गया है उसकी परिणति से बच कर रहा जा सकता है। राजदण्ड, समाज भर्त्सना से तो मनुष्य अपनी चतुरता के आधार पर बच भी सकता है, किन्तु ईश्वर के यहाँ ऐसी अन्धेरगर्दी तनिक भी नहीं है। आज नहीं तो कल कृत कर्मों की परिणति सामने आने ही वाली है। इसलिए शास्त्रानुशासन यही है कि दुष्कृत्यों का प्रायश्चित किया जाय और पुण्य-परमार्थ का अनुपात बढ़ाया जाय। यह दोनों ही प्रयोजन आध्यात्मिक कल्प-साधना से सिद्ध होते हैं।
इस संदर्भ में शास्त्र अभिप्राय स्पष्ट है। नीतिकार कहते हैंं कि संचित पापकर्म अनेकानेक संकटों को आमंत्रित करते हैंं।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
दारिद्रयदुःखरोगानि बन्धन व्यसनानि च।।२।।
- चाणक्य
अर्थात "मनुष्यों को अपने अपराध रूपी वृक्ष से दरिद्रता, रोग, दुःख, बन्धन और विपत्ति आदि फल मिलते हैंं।"
पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा।
पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयंकरः॥
पाप से व्याधि, वृद्धत्व, दीनता, दुःख और भयंकर शोक की प्राप्ति होती है।
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।
स्थाणु मन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथा श्रुतम्॥
अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावर भाव (वृक्षादियोनि) को प्राप्त होते हैंं।
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