आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
'पुण्यो पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन।'
अर्थात् 'निश्चय ही यह जीव पुण्य कर्म से पुण्यशील होता है। पुण्य योनि में जन्म पाता है और पाप-कर्म से पापशील होता है, पाप योनि में जन्म ग्रहण करता है।'
'साधुकारी साधुर्भवति पारकारी पापो भवति।'
अर्थात् 'अच्छे कर्म करने वाला अच्छा होता है। सुखी एवं सदाचारी कुल में जन्म पाता है और पाप करने वाला पापात्मा होता है, पाप योनि में जन्म ग्रहण करके दुःख उठाता है।'
ऐसा प्रतीत होता है कि दृष्टा ऋषिगण भूत, वर्तमान, भविष्य का भली भाँति विश्लेषण कर सकने में समर्थ थे। आरण्यकों में बार-बार यही पाठ पढ़ाये जाते थे तथा इन्हीं सूत्रों का मनन स्वाध्याय होता था ताकि व्यक्ति पाप-प्रतिफल भय से अनीति की ओर उन्मुख न हो। महाभारत ग्रन्थ में रचनाकार ने स्पष्ट कहा है-
जातिमत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः।
संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः ॥३॥
- महाभारत वनपर्व
"मनुष्य अपने ही किए हुए अपराधों के कारण जन्म-मृत्यु और जरा सम्बन्धी दुःखों से सदा पीड़ित हो बारम्बार संसार में पचता रहता है।"
जन्तुस्तकर्मभिस्तेस्तेः स्वकतः प्रेत्य दःखितः।
तहखप्रतिघातार्थमपण्यां योनिमाप्नते ॥३५॥
"प्रत्येक जीव अपने किए हुए कर्मों से ही मृत्यु के पश्चात् दुःख भोगता है और उस दुःख का भोग करने के लिए ही वह पाप योनि में जन्म लेता है।"
मरणोत्तर जीवन लोक-परलोक सम्बन्धी ऐसी स्पष्ट व्याख्या किसी धर्मग्रन्थ में नहीं मिलती। यदि व्यक्ति मात्र इतना ही जान लें, इस सत्य को हृदयंगम कर लें तो न कहीं व्याधि रहे, न जरा। दुःख, शोक, भावनात्मक संक्षोभ सभी पापों की ही परिणति हैं जो रोगों का रूप लेती व प्रकट होती रहती है।
जलोदरं यकृत प्लीहा शूलरोगव्रणानि च।
स्वासाजीर्णज्वरच्छर्दिभ्रमोहनगलग्रहाः।।
रक्तार्बुद विसर्पाना उपपापोद् भवा गदाः।
दण्डापता नकश्चित्रवपुः कम्पविधर्चिकाः॥
वाल्मीकपुण्डरीकाक्षां रोगाः पापसमुदभवाः।
अर्शआद्या नृणां रोगा अतिपापाद् भवन्ति हि॥
- शातातप स्मृति
जलोदर, तिल्ली, यकृत, शूल, व्रण, श्वास, अजीर्ण, ज्वर, जुकाम, भ्रम, मोह, जलग्रह, रक्तार्बुद, विसर्प आदि रोग उप पातकों के कारण होते हैंं। दण्ड पतानक, चित्रवप, कम्प, विशचिका, पुण्डरीक आदि रोग सामान्य पापों के कारण होते हैं।
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