आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
घातुओं के मैल को हटाने के लिए जैसे उन्हें तीक्ष्ण अग्नि में रखते हैं, उसी तरह पापी प्राणियों को पाप-नाश के उद्देश्य से ही अपने कर्मों के अनुसार ही नरकों में गिराया जाता है।
शरीर जैः कर्म दोषैाति स्थावरतां नरः।
वाचिकैः पक्षि मृगतां मानसै रन्य जातिताम्।।
इह दुश्चरितैः केचित्केचित पूर्व कृतस्तिथा।
प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो करा रूपं विपर्ययम्॥
"शारीरिक पाप कर्मों से जड़ योनियों में जन्म होता है। वाणी पापों से पशु-पक्षी बनना पड़ता है। मानसिक दोष करने वाले मनुष्य योनि से बहिष्कृत हो जाते हैं। इस जन्म के अथवा पूर्व जन्म के किये हुए पापों से मनुष्य अपनी स्वाभाविकता खोकर विद्रूप बनते हैं।" (मनुस्मृति)
दुष्कृत्यों का फल हरेक को अवश्यम्भावी मिलता है, इस तथ्य को भली भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए। किया हुआ कर्म किसी को नहीं छोड़ता। इसका न कभी क्षय होता है, न क्षमादान की कोई व्यवस्था है। किसी न किसी रूप में मनुष्य को इसे भुगतना ही होता है। समय अवश्य लग जाय पर कर्मफल एक अकाट्य एवं सुनिश्चित सत्य है।
नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति।
कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते।।
(महा. शांति. अ. २२८)
"अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता, निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है।"
कृतकर्म क्षयोनास्ति कल्पकोटि शतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।।
(शिव. कोटि रुद्र. अ. २३)
किये हुए कर्म का सौ करोड़ कल्प तक भी क्षय नहीं होता, किया हुआ शुभ तथा अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ेगा।"
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